कविता लिखना
कलम बाँध कर लाठी से
लाठी देख
बँदरिया नाचे
अपना मालिक चीन्हे-जानें
रबर-सरीखे
लक्ष्य अकड़ को
जोर लगाकर खींचे-तानें
दंद-फंद को
बाहर करने
भिड़ा हुआ हूँ कद-काठी से
संवेदन को
जीना होगा
तोड़ रही दम आशा छोटी
शक्ल आदमी की
है लेकिन
खून पिये औ' छीने रोटी
सुअर खाल पर
शब्द व्यंजना
ताकतवर हो तन माटी से
दूध-मलाई
मक्खन खाते, जिसकी
लाठी भैंस उसी की
फ़कत सिपाही
रहे कलम के, किये
नहीं कम पीर किसी की
बेहतर अलग
हो जाना चाहूँ
निर्बल की परपाटी से
-रामकिशोर दाहिया
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " जय जय संतुलन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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