February 4, 2016

साँस भी जर्जर


अब नहीं झरते
कलम से प्रेम के आखर

हर सुबह खटपट पुरानी
घाव-सी रिसती जवानी
नून, लकडी, तेल में ही
साँस की अटकी रवानी
छौंक में उड़ते-बिखरते
भावना के पर

लय कहीं ठिठकी हुई है
राह फिर भटकी हुई है
सफर में दलदल उगे हैं
चाल फिर अटकी हुई है
सर्द सन्नाटे हुए
क्या ताल क्या तरुवर

एक बालक-सी हठीली
धूसरित कुछ, कुछ सजीली
सीढ़ियों पर चढ़ रही है
उम्र सीली हो कि गीली
हो रही है आस बेशक
रेत-सी झर-झर

-डा० मालिनी गौतम

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