बस्तियों में
धूप की चादर तनी है. आज कारावास में
फिर चाँदनी है।
भरी आँखों ताकते हैं
पेड़, घर, सीवान.
फिर नये पिंजरे लिये
आने लगे मेहमान
काँच सी मजबूर हीरे
की कनी है।
अर्चना का गीत मँहगा है
हमें ही खा रहा है
दूर से आया शिकारी
द्वार पर मंडरा रहा है
फिर हवाओं में
फुदकती सनसनी है।
फर्श पर मखमल बिछाते
स्वागतम् कहते दरिंदे.
विष भरे दाने निगलते
छतों पर भोले परिंदे
स्याह दिन की भोर
कुछ-कुछ बैंगनी है।
-रामबाबू रस्तोगी
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