गा मंगल के गीत सुहागिन
चौमुख दियरा बाल केआज शरद की साँझ, अमा के
इस जगमग त्योहार में
दीपावली जलाती फिरती
नभ के तिमिरागार में
चली होड़ करते तू, लेकिन
भूल न,-यह संसार है;
भर जीवन की थाल दीप से
रखना पाँव सँभाल के
सम्मुख इच्छा बुला रही
पीछे संयम-स्वर रोकते
धर्म-कर्म भी बायें-दायें
रुकी देखकर टोकते
अग-जग की ये चार दिशायें
तम से धुँधली दीखती;
चतुर्मुखी आलोक जला ले
स्नेह सत्यता ढाल के
दीप-दीप भावों के झिलमिल
और शिखायें प्रीति की
गति-मति के पथ पर चलना है
ज्योति लिये नव रीति की
यह प्रकाश का पर्व अमर हो
तमके दुर्गम देश में
चमके मिट्टी की उजियाली
नभ का कुहरा टाल के
-राजेन्द्र प्रसाद सिंह
भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार
ReplyDeleteकुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.