आँधियाँ चलने लगी हैं
झर रहे खामोश पत्ते
उम्र से ज्यों छिन
ज़िंदगी के चार में से
रह गए दो दिन
खेत की किन क्यारियों में
खो गई है छाँव ?
खेत सूखे जा रहे हैं
भूख से ज्यों देह
मोर बैठा ताकता है
रिक्त होते मेह
बोझ से जख्मी हुए
पगडंडियों के पाँव
रेत ने सब लील डाली
है नदी की धार
भोगनी पड़ती गरीबों
को दुखों की मार
ठूँठ होती टहनियों पर
चील ढूँढे़ ठाँव
-रजनी मोरवाल
सी-204, संगाथ प्लेटीना
मोटेरा, अहमदाबाद -380005
ठूंठ होती टहनियों पे चील ढूंढें ठांव ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया नवगीत
सुन्दर गीत |रजनी मोरवाल को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है |आभार
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