January 14, 2014

आँधियाँ चलने लगी

आँधियाँ चलने लगी हैं
फिर हमारे गाँव

झर रहे खामोश पत्ते
उम्र से ज्यों छिन
ज़िंदगी के चार में से
रह गए दो दिन
खेत की किन क्यारियों में
खो गई है छाँव ?

खेत सूखे जा रहे हैं
भूख से ज्यों देह
मोर बैठा ताकता है
रिक्त होते मेह
बोझ से जख्मी हुए
पगडंडियों के पाँव

रेत ने सब लील डाली
है नदी की धार
भोगनी पड़ती गरीबों
को दुखों की मार
ठूँठ होती टहनियों पर
चील ढूँढे़ ठाँव

-रजनी मोरवाल

सी-204, संगाथ प्लेटीना
मोटेरा, अहमदाबाद -380005

2 comments:

  1. ठूंठ होती टहनियों पे चील ढूंढें ठांव ...
    बहुत बढ़िया नवगीत

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  2. सुन्दर गीत |रजनी मोरवाल को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है |आभार

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