बिना किसी गंतव्य लक्ष्य के
पत्थर बाँधे हुए पाँव मेंहम भी खूब फिरे।
यही बहुत है, फिसले, सम्हले
लेकिन नहीं गिरे
कई बार निष्ठायें बदलीं
कई बार पाले
तोड़ नहीं पाये खुद ऐसे
बाँधे थे जाले
यही बहुत है हाथों से बस
छूटे नहीं सिरे।
जो जिसने कह दिया उसे ही
सत्य वचन माना
दृष्टि बाँध ली पहले फिर
जंगल-जंगल छाना
यही बहुत है इन्द्रजाल में
ज्यादा नहीं घिरे।
नदी नाव संयोग सभी ने
कितनी बार छला
बार-बार आशंकाओं ने
मुख पर रंग मला
यही बहुत है टूटे लेकिन
कभी नहीं बिखरे।
-सुशील सरित
-( सम्यक, नवगीत विशेषांक से साभार)
बहुत ही बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
जीवन की मजबूरियों का चित्रण और मन को सहलाती रचना
ReplyDeleteइस बार मधुमती का भी गीत विशेषांक था नीचे उसका लिंक भेज रही हूँ
http://rsaudr.org/show_adition.php?id=janfeb_2012
नाउमीदियों के बीच कई ऐसे मकाम आते हैं ..जब सब्र का दामन हाथ से छूटता जाता है ..फिर भी एक आस उसे थामे रहती है ....शायद !!!!!!....बहुत ही सशक्त भावपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गीत...
ReplyDeleteशुक्रिया..
सादर.
अच्छी रचना
ReplyDeletebeautiful lines withdeep expression of emotions.
ReplyDeleteसुन्दर नवगीत...
ReplyDeleteसादर बधाईयाँ..