March 9, 2012

कभी नहीं बिखरे

बिना किसी गंतव्य लक्ष्य के
पत्थर बाँधे हुए पाँव में
हम भी खूब फिरे।
यही बहुत है, फिसले, सम्हले
लेकिन नहीं गिरे

कई बार निष्ठायें बदलीं
कई बार पाले
तोड़ नहीं पाये खुद ऐसे
बाँधे थे जाले
यही बहुत है हाथों से बस
छूटे नहीं सिरे।

जो जिसने कह दिया उसे ही
सत्य वचन माना
दृष्टि बाँध ली पहले फिर
जंगल-जंगल छाना
यही बहुत है इन्द्रजाल में
ज्यादा नहीं घिरे।

नदी नाव संयोग सभी ने
कितनी बार छला
बार-बार आशंकाओं ने
मुख पर रंग मला
यही बहुत है टूटे लेकिन
कभी नहीं बिखरे।

-सुशील सरित

-( सम्यक, नवगीत विशेषांक से साभार)

7 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया सर!


    सादर

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  2. जीवन की मजबूरियों का चित्रण और मन को सहलाती रचना
    इस बार मधुमती का भी गीत विशेषांक था नीचे उसका लिंक भेज रही हूँ
    http://rsaudr.org/show_adition.php?id=janfeb_2012

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  3. नाउमीदियों के बीच कई ऐसे मकाम आते हैं ..जब सब्र का दामन हाथ से छूटता जाता है ..फिर भी एक आस उसे थामे रहती है ....शायद !!!!!!....बहुत ही सशक्त भावपूर्ण प्रस्तुति

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  4. बहुत खूबसूरत गीत...

    शुक्रिया..
    सादर.

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  5. beautiful lines withdeep expression of emotions.

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  6. सुन्दर नवगीत...
    सादर बधाईयाँ..

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