December 6, 2011

कुटी चली परदेश कमाने

कुटी चली परदेश कमाने
घर के बैल बिकाने
चमक दमक में भूल गई है
अपने ताने बाने

राड बल्ब के आगे फीके
दीपक के उजियारे
काट रहे हैं फुटपाथों पर
अपने दिन बेचारे
कोलतार सड़कों पर चिड़िया
ढूँढ़ रही है दाने

एक एक रोटी के बदले
सौ सौ धक्के खाये
किन्तु सुबह के भूले पंछी
लौट नहीं घर आये
काली तुलसी कैक्टस दल के
बैठी है पैताने

गोदामों के लिए बहाया
अपना खून पसीना
तन पर चमड़ी बची न बाकी
ऐसा भी क्या जीना
छाँव बरगदी राजनगर में
आई गाँव बसाने

-शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रविष्टि

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  2. वाह..... सच्ची अभिव्यक्ति

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