ये कैसी आपाधापी है
ये कैसा क्रंदनदूर खड़े चुप रहे देखते
हम पलाश के वन ।
तीन पात से बढ़े न आगे
कितने युग बीते
अभिशापित हैं जनम-जनम से
हाथ रहे रीते
सहते रहे ताप, वर्षा
पर नहीं किया क्रंदन
हम पलाश के वन ।
जो आया उसने धमकाया
हम शोषित ठहरे
राजमहल के द्वार, कंगूरे
सब निकले बहरे
करती रहीं पीढ़ियाँ फिर भी
उनका अभिनंदन
हम पलाश के वन ।
धारा के प्रतिकूल चले हम
जिद्दीपन पाया
रितु वसंत में नहीं
ताप में पुलक उठी काया
चमक दमक से दूर
हमारी बस्ती है निर्जन
हम पलाश के वन ।
-डा० जगदीश व्योम
(नवगीत की पाठशाला से साभार)
बहुत खूबसूरत पोस्ट, बधाई
ReplyDeletenamaskaar !
ReplyDeleteaap ke blog pe pehli baar aaya , aur aap ko padh kar achcha laga .
saadar
धन्यवाद सुनील गज्जाणी जी
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा, आपकी लेखन शैली प्रशंसनीय है. यदि आपको समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी आये, यह ब्लॉग योग व हर्बल के माध्यम से जीवन को स्वस्थ रखने के लिए बनाया गया है. हम आपकी प्रतीक्षा करेंगे. यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो समर्थक बनकर हमारा हौसला बढ़ाये. योग और हर्बल
ReplyDeletebahut badhiya post
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