अपने जीवन के पल प्रति पल को
दीप-वर्तिका बना-बना
जल कर भी जिसने आह न की
कर दूर अवनि का तिमिर घना
क्या सुनते हैं ये कान वही देवी छलना से छली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
पहले प्रसाद ने मुँह मोड़ा
अलविदा निराला बोल गए
चिर पथिक पंत जब हए
धरा रोई थी सागर डोल गए
अब कौन हरेगा तपन, नीर वाली बदली तो चली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
नीहार प्रथम परिचय जिसका
फिर रश्मि युवा की संगिनि थी
मन प्रौढ़ हुआ, नीरजा बनी
फिर सांध्यगीत में संध्या थी
सिद्धावस्था की चौखट पर
जब दीपशिखा की ज्योति जली
वह ज्योति आज उस महाज्योति का साथ निभाने चली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
निज जीवन की आहुति देकर
जो बनी सहेली हिन्दी की
हिन्दी साक्षात भारती है
वह देवि भाल की बिन्दी थी
हिन्दी को मान न दे पाये
पर उसे दिया जब अलंकरण
वह नहीं आम लोगों-सी थी
कर लेती पद्मभूषण का वरण
ले जाओ पद्मभूषण अपना
रखने से पीड़ा होती है
धिक्कार मुझे, धिक्कार तुम्हें
अपने घर हिन्दी रोती है
वह कहाँ गई ? क्यों गई? न जाने कौन लोक, किस गली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
बुझ गई दीप की शिखा मगर
लालिमा रहेगी सदियों तक
पंकिल भूतल को त्याग
"व्योम" में वास करेगी सदियों तक
लेखनी थाम कर लिखवाना
जब पथ भूलूँ तब आ जाना
धरती पर जब हो महा अन्ध
तब प्रथम रश्मि बन आ जाना
तुमको प्रणाम, शत शत प्रणाम
कर रहा व्योम का रोम रोम
स्वप्नों के खोले दरवाजे, स्पन्दन बन कर चली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
-डॉ॰ जगदीश व्योम
दीप-वर्तिका बना-बना
जल कर भी जिसने आह न की
कर दूर अवनि का तिमिर घना
क्या सुनते हैं ये कान वही देवी छलना से छली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
पहले प्रसाद ने मुँह मोड़ा
अलविदा निराला बोल गए
चिर पथिक पंत जब हए
धरा रोई थी सागर डोल गए
अब कौन हरेगा तपन, नीर वाली बदली तो चली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
नीहार प्रथम परिचय जिसका
फिर रश्मि युवा की संगिनि थी
मन प्रौढ़ हुआ, नीरजा बनी
फिर सांध्यगीत में संध्या थी
सिद्धावस्था की चौखट पर
जब दीपशिखा की ज्योति जली
वह ज्योति आज उस महाज्योति का साथ निभाने चली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
निज जीवन की आहुति देकर
जो बनी सहेली हिन्दी की
हिन्दी साक्षात भारती है
वह देवि भाल की बिन्दी थी
हिन्दी को मान न दे पाये
पर उसे दिया जब अलंकरण
वह नहीं आम लोगों-सी थी
कर लेती पद्मभूषण का वरण
ले जाओ पद्मभूषण अपना
रखने से पीड़ा होती है
धिक्कार मुझे, धिक्कार तुम्हें
अपने घर हिन्दी रोती है
वह कहाँ गई ? क्यों गई? न जाने कौन लोक, किस गली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
बुझ गई दीप की शिखा मगर
लालिमा रहेगी सदियों तक
पंकिल भूतल को त्याग
"व्योम" में वास करेगी सदियों तक
लेखनी थाम कर लिखवाना
जब पथ भूलूँ तब आ जाना
धरती पर जब हो महा अन्ध
तब प्रथम रश्मि बन आ जाना
तुमको प्रणाम, शत शत प्रणाम
कर रहा व्योम का रोम रोम
स्वप्नों के खोले दरवाजे, स्पन्दन बन कर चली गई।
दीवाली से पहले अपना दीप बुझा कर चली गई।।
***
-डॉ॰ जगदीश व्योम
व्योमजी ,
ReplyDeleteआपके इस प्रयास के लिए बधाई | महादेवीजी की रचना अच्छी लगी रचना |
अवनीश तिवारी
व्योम जी!
ReplyDeleteवन्दे मातरम.
नवगीत की पाठशाला से सन्दर्भ पाकर पहली बार यहाँ आया. पूज्य बुआ जी चित्र और रचना पढ़कर मन अतीत के स्मृतियों में खो गया. साधुवाद. अब तो जुड़ाव बना रहेगा. आपका पर स्वागत है. पधारिये. अपनी रचनाओं से इसे समृद्ध करिए. मैं जब जो चाहेंगे सहयोग हेतु तत्पर हूँ.
व्योम से आया धरा पर मैं ;सलिल;
धरा से पुनि व्योम तक जाता रहा.
मौन थी जब थकित होकर सृष्टि सब-
नाद कलकल अनवरत गाता रहा.
प्रिय व्योम जी,
ReplyDeleteदो दिन पूर्व 'अनुभूति' के माध्यम से आपके द्वारा संपादित ब्लॉग से परिचित होना सुखद रहा | महीयसी पूज्या महादेवी जी की उपस्थिति और उसके साथ का दुर्लभ चित्र - साथ में आपकी गीत-श्रद्धांजलि, सब कुछ अनुपमेय | भाई राधेश्याम 'बन्धु' का गीत भी सुंदर | इस श्रेष्ठ ब्लॉग-संचयन हेतु मेरा हार्दिक साधुवाद स्वीकारें | रचना-सहयोग के रूप में दो नवगीत संलग्न हैं | आशा है रुचेंगे |
स्नेह-नमन स्वीकारें !
आपका
कुमार रवीन्द्र
बच्चे की आँख में
सामने कैलेंडर है
बच्चा है
बच्चे की आँख में कबूतर है
कमरे में दिन है
धूप है-हवाएँ हैं
नीले आकाश हैं
परियों की बातें हैं
नदियों के घाट हैं
गाछ-हरी घास हैं
खिड़की के बाहर
जो पीपल है
उसकी परछाईं भी अंदर है
खुले हुए दरवाजे
आर-पार फैले हैं
सपने-ही-सपने
फूल और पत्तों के
आपस के रिश्ते
सारे हैं अपने
यह टापू साँसों का
जिस पर हैं यादें
यहीँ सूरज का घर है
यह यात्रा लंबी है
यह यात्रा लंबी है
थके डाँड / टूटे मस्तूलों की
पानी की विपदा है
पोत ये पुराने हैं
लहरों के छल सारे
जाने-पहचाने हैं
मन में पछतावे हैं
गिनती है भूलों की
वही-वही टापू हैं
उजड़े-वीरान-जले
रिश्तों के अंतरीप
कटे-कटे तट पगले
बाकी कुछ गूँजें हैं
पिछले महसूलों की
पत्थर के चेहरे हैं
तने-हुए भाले हैं
हत्यारे हाथों में
मोम की मशालें हैं
बासी अख़बारों में
खबरें हैं फूलों की
"हर यात्रा खो गयी तपन में,
ReplyDeleteसड़कें छायाहीन हो गयीं,
बस्ती-बस्ती लू से झुलसी,
गालियां सब गमगीन हो गयीं।
थका बटोही
लौट न जाये, सुधि की जुही खिलाये रखना।"-
सजीव चित्रण किया है आपने आज की स्थितियों का. बधाई स्वीकारें - अवनीश सिंह चौहान