कुछ न मिला जब
धनुर्धरों से
बंशी वारे से
हार-हूर कर माँग रहे हैं
भील-भिलारे से
ला चकमक तो दे
चिंतन में आग लगाना है
थोड़ी सी किलकारी दे
बच्चे बहलाना है
कैसे डरे-डरे बैठे हैं
अक्षर कारे से
कुछ न मिला जब...
हम पोशाकें पहन
पिघलते रहते रखे-रखे
तूने तन-मन कैसे साधा
नंग-मनंग सखे
हमको भी चंगा कर
गंडा, बूटी, झारे से
कुछ न मिला जब...
हम कवि हैं
चकोरमुख से अंगार छीनते हैं
बैठे-ठाले शब्दकोश के
जुएँ बीनते हैं
मिले तिलक छापे
गुरुओं के पाँव पखारे से
कुछ न मिला जब...
एक बददुआ-सी है मन में
कह दें, तो बक दूँ,
एक सेर महुआ के बदले
गोरी पुस्तक दूँ,
हमें मिला सो तू भी पा ले
ज्ञान उजारे से
कुछ न मिला जब...
-महेश अनघ
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 31मई 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
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सामयिक संदर्भों पर गहन अभ्व्यक्ति
ReplyDeleteसुंदर नवगीत
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत । रेणु चन्द्रा
ReplyDeleteला चकमक तो दे
ReplyDeleteचिंतन में आग लगाना है
या
हम कवि हैं
चकोर मुख से अंगार छीनते हैं
सुंदर शब्दों से पिरोया हुआ भावपूर्ण नवगीत