किरन बसी फुनगी पर
जड़ से खानापूरी है
पूछ रही झोपड़ी
महल से
कितनी दूरी है।
कुछ सूखा अकाल को
अर्पित कुछ
भूचालों को
खोल न पाया कोई
लोकतंत्र के
तालों को
व्यर्थ कल्पना
अच्छे दिन की
आस अधूरी है।
समझ न पाये,
राजनीति में
जुमलों की भाषा
चाहत थी सोने की
हाथों में
पीतल-काँसा
चर्चायें उम्मीदों की
अब गै़र ज़रूरी हैं।
कहते हैं कुछ लोग
रोशनी
आयातित होगी
आगामी पीढ़ी
आजीवन
इन्द्रियजित होगी
मिलती है
सांत्वना रात में
सुबह सिंदूरी है।
पकती है
सदियों से
चतुर वीरबल की खिचड़ी
बाबा भूखे गये
भरोसे की
बगिया उजड़ी
ठठरी पर है चाम
ज़िन्दगी में बेनूरी है।
-मधुकर अष्ठाना
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 20 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर यथार्थ पर सार्थक रचना।
ReplyDeleteपकती है
ReplyDeleteसदियों से
चतुर वीरबल की खिचड़ी
बाबा भूखे गये
भरोसे की
बगिया उजड़ी
ठठरी पर है चाम
ज़िन्दगी में बेनूरी है।
–सुन्दर रचना
–उम्दा भावाभिव्यक्ति
बहुत सुंदर
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