खिड़कियों में घन बरसते
द्वार पर पुरवा हवा..
पाँच-तारी चाशनी में पग रहे
सपने रवा !
किन्तु इनका क्या करें ?
क्या पता आये न बिजली
देखना माचिस कहाँ है
फैलता पानी सड़क का
मूसता चौखट जहाँ है
सिपसिपाती चाह ले
डूबा-मताया घुस रहा है
हक जमाता है धनी-सा
जो न सोचे.. ’क्या यहाँ है ?’
बंद दरवाजा, खुला बिस्तर,
पड़ी है कुछ दवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
मात्र पद्धतियाँ दिखीं
प्रेरक कहाँ सिद्धांत कोई
कुछ करें मंथन,
विचारों में उलझ उद्भ्रान्त कोई
चढ़ रहा बाज़ार
फिर भी क्यों टपकता है पसीना ?
सूचकांकों के गणित में
पिट रहा है क्लान्त कोई
एक नचिकेता नहीं
लेकिन कई वाजश्रवा
किन्तु इनका क्या करें ?
सिमसिमी-सी मोमबत्ती
एक कोने में पड़ी है
पेट-मन के बीच, पर,
खूँटी बड़ी गहरी गड़ी है
उठ रही
जब-तब लहर-सी
तर्जनी की चेतना से,
ताड़ती है आँख जिसको
देह-बन्धन की कड़ी है
फिर दिखी है रात जागी
या बजा है फिर सवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
-सौरभ पाण्डेय
एम-2 / ए-17, ए.डी.ए. कॉलोनी
नैनी, इलाहाबाद - 211008
संपर्क - 9919889911
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