March 20, 2012

छिड़ता युद्ध

छिड़ता युद्ध
बिखरता त्रासद
इंसां रोता है ।

जन संशय
त्रासदी ओढ़कर
आगे आया है
महानाश का
विकट राग, फिर
युग ने गाया है
पल में नाश
सृजन सदियों का
ऐसा होता है ।

वाट जोहती
थकित मनुजता
ले टूटी कश्ती
भय की छाया
व्यथित विकलता
औ फाकामस्ती
दम्भ-जनित
कंकाल सृजन के
कोई ढोता है ।

उठो मनुज
थामनी पड़ेगी, ये
पागल आँधी
आज उगाने
होंगे घर-घर में
युग के गाँधी
मिलता ‘व्योम’
विरासत में, युग
जैसा बोता है ।

-डा० जगदीश व्योम

6 comments:

  1. वाह डाक्टर व्योम जी, व्यवहारिक कह बात ।

    व्योमोदक मोदक मिले, खाए-पिए अघात ।

    खाए-पिए अघात, राग की महा-विकटता ।

    युग सहता आघात, व्यथित हो रही मनुजता ।

    गाँधी की भरमार, कौन सा रोके आँधी ।

    ख़त्म हो रही धार, बढे है हर दिन व्याधी ।।

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  2. बहुत ही बढ़िया सर!


    सादर

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  3. वाह...
    बाहर खूब..
    सार्थक लेखन.

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  4. बात जोहती थकित मनुजता ....
    युग चित्रण करता नवगीत

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  5. परमेश्वर फुँकवाल9:26 AM

    बहुत सुन्दर नवगीत है व्योम जी. हम आज अपने आप से युद्ध की स्थिती में हैं, कोई तो इस युग के गांधी से परिचय कराये.

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