छिड़ता युद्ध
बिखरता त्रासदइंसां रोता है ।
जन संशय
त्रासदी ओढ़कर
आगे आया है
महानाश का
विकट राग, फिर
युग ने गाया है
पल में नाश
सृजन सदियों का
ऐसा होता है ।
वाट जोहती
थकित मनुजता
ले टूटी कश्ती
भय की छाया
व्यथित विकलता
औ फाकामस्ती
दम्भ-जनित
कंकाल सृजन के
कोई ढोता है ।
उठो मनुज
थामनी पड़ेगी, ये
पागल आँधी
आज उगाने
होंगे घर-घर में
युग के गाँधी
मिलता ‘व्योम’
विरासत में, युग
जैसा बोता है ।
-डा० जगदीश व्योम
वाह डाक्टर व्योम जी, व्यवहारिक कह बात ।
ReplyDeleteव्योमोदक मोदक मिले, खाए-पिए अघात ।
खाए-पिए अघात, राग की महा-विकटता ।
युग सहता आघात, व्यथित हो रही मनुजता ।
गाँधी की भरमार, कौन सा रोके आँधी ।
ख़त्म हो रही धार, बढे है हर दिन व्याधी ।।
बहुत ही बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
वाह...
ReplyDeleteबाहर खूब..
सार्थक लेखन.
बात जोहती थकित मनुजता ....
ReplyDeleteयुग चित्रण करता नवगीत
बहुत सुन्दर नवगीत है व्योम जी. हम आज अपने आप से युद्ध की स्थिती में हैं, कोई तो इस युग के गांधी से परिचय कराये.
ReplyDeletebahut sundar navgeet hai aapka. meree badhai sweekaren!
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