तू मन अनमना न कर अपना
इसमें कुछ दोष नहीं तेरा
धरती के काग़ज़ पर मेरी
तस्वीर अधूरी रहनी थी
रेती पर लिखे नाम जैसा
मुझको दो घड़ी उभरना था
मलयानिल के बहकाने पर
बस एक प्रभात निखरना था
गूँगे के मनोभाव जैसे
वाणी स्वीकार न कर पाए
ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम
असमर्पित सूख बिखरना था
जैसे कोई प्यासा मरता
जल के अभाव में विष पी ले
मेरे जीवन में भी कोई
ऐसी मजबूरी रहनी थी
इच्छाओं के उगते बिरवे
सब के सब सफल नहीं होते
हर एक लहर के जूड़े में
अरुणारे कमल नहीं होते
माटी का अंतर नहीं मगर
अंतर रेखाओं का तो है
हर एक दीप के हँसने को
शीशे के महल नहीं होते
दर्पण में परछाईं जैसे
दीखे तो, पर अनछुई रहे
सारे सुख-वैभव से यूँ ही
मेरी भी दूरी रहनी थी
मैंने शायद गत जन्मों में
अधबने नीड़ तोड़े होंगे
चातक का स्वर सुनने वाले
बादल वापस मोड़े होंगे
ऐसा अपराध किया होगा
जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती
तितली के पर नोंचे होंगे
हिरनों के दृग फोड़े होंगे
अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे
इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे
तन को बेचैन विचरना था
मन में कस्तूरी रहनी थी
-भारत भूषण
[सुप्रसिद्ध गीतकार भारत भूषण ने शनिवार १७ दिसम्बर २०११ को दिन के ३ बजकर ५० मिनट पर इस संसार को हमेशा के लिए छोड़ दिया। नवगीत परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धाजंलि। ]
कागज़ पर मेरी तस्वीर अधूरी रहनी थी .....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत.... आत्मा को झकझोरती रचना
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा आज दिनांक 19-12-2011 को सोमवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteहमारी भावभीनी श्रद्धांजलि.
ReplyDeleteसादर विनम्र श्रद्धांजलि भारत भूषण जी को .....
ReplyDeleteउनका विनम्र स्वभाव , चुम्बकीय व्यक्तित्व और हृदयस्पर्शी गीत हमेशा याद आते रहेंगे |
भारत भूषण जी को मेरी तरफ से विनम्र श्रधांजलि ....
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजली....
ReplyDeleteअच्छी रचना .
ReplyDeleteआदरणीय भारत भूषण जी को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि! तमाम स्मृतियाँ उद्वेलित करने लगती हैं, यह अहसास होते ही कि अब वह हमारे बीच नहीं हैं।
ReplyDeleteआदरणीय भारत भूषण जी को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि!
ReplyDeleteतमाम स्मृतियाँ मन को उद्वेलित करने लगती हैं यह अहसास होते ही कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं।
मोहक रचना है.
ReplyDeleteउन्हें फिर से श्रद्धांजलि.
(स्मृतिशेष भाई भारतभूषण को संबोधित)
ReplyDeleteभाई, यह क्या
छोड़ गये तुम
गीतों को चुपचाप अकेला
तुमने टेरा
गीत हुआ था सगुनापाखी
सूर-कबीरा-मीरा की
तुमने पत राखी
तुम थे
तब था लगता
जैसे हर दिन हो गीतों का मेला
तुम बिन सूना
गीतों का हो गया शिवाला
तुमने ही था
उसे नये साँचे में ढाला
नेह-देवता
सोच रहे अब
कौन करेगा ऋतु का खेला
तुमने सिखलाया था
कैसे गान उचारें
पतझर-हुए गीत को भी
किस भाँति सँवारें
थाती है
जो छोड़ गये तुम
गीतों का मौसम अलबेला