September 11, 2011

आदमखोर

पंछी पेड़ों से दहशत में
उड़े मचाते शोर
जंगल के सीने पर चढ़कर
बैठा आदमखोर।

संध्याओं के हाथ जले हैं
पंख तितलियों के
कितने तेज धार वाले
नाखून उँगलियों के
फंदा डाल गले में
लटकी हुई सुनहरी भोर।

इतना सब कुछ हुआ मगर
ये दिन भी कहाँ अछूता
फर्जी हर मुठभेड़ कहाँ तक
लिखता इब्नबतूता
फिर बहेलिए खींच रहे हैं
नये जाल की डोर।

सपनीली आँखों में भी हैं
सपने डरे हुए
तपती हुई रेत में
सौ-सौ चीतल मरे हुए
जल विहीन मेघों के सम्मुख
कत्थक करते मोर।

-जयकृष्ण राय तुषार

( सम्यक पत्रिका के नवगीत विशेषांक से )

7 comments:

  1. डॉ० व्योम जी आपका बहुत -बहुत आभार

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  2. अति सुन्दर गीत लिखा हे आपने

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  3. बहुत खूब .... बहुत सुन्दर

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  4. मन को छूते हुये शब्दों में बड़ी कुशलता से अपनी बात कही है.

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  5. bahut sundar prastuti.

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  6. सुन्दर रचना आपकी, नए नए आयाम |
    देत बधाई प्रेम से, प्रस्तुति हो अविराम ||

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  7. जयकृष्ण राय तुषार जी के नवगीत पर आप सभी ने प्रतिक्रिया लिखकर हमारा सहयोग किया है, आप सभी का आभार।
    -नवगीत

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