पंछी पेड़ों से दहशत में
उड़े मचाते शोरजंगल के सीने पर चढ़कर
बैठा आदमखोर।
संध्याओं के हाथ जले हैं
पंख तितलियों के
कितने तेज धार वाले
नाखून उँगलियों के
फंदा डाल गले में
लटकी हुई सुनहरी भोर।
इतना सब कुछ हुआ मगर
ये दिन भी कहाँ अछूता
फर्जी हर मुठभेड़ कहाँ तक
लिखता इब्नबतूता
फिर बहेलिए खींच रहे हैं
नये जाल की डोर।
सपनीली आँखों में भी हैं
सपने डरे हुए
तपती हुई रेत में
सौ-सौ चीतल मरे हुए
जल विहीन मेघों के सम्मुख
कत्थक करते मोर।
-जयकृष्ण राय तुषार
( सम्यक पत्रिका के नवगीत विशेषांक से )
डॉ० व्योम जी आपका बहुत -बहुत आभार
ReplyDeleteअति सुन्दर गीत लिखा हे आपने
ReplyDeleteबहुत खूब .... बहुत सुन्दर
ReplyDeleteमन को छूते हुये शब्दों में बड़ी कुशलता से अपनी बात कही है.
ReplyDeletebahut sundar prastuti.
ReplyDeleteसुन्दर रचना आपकी, नए नए आयाम |
ReplyDeleteदेत बधाई प्रेम से, प्रस्तुति हो अविराम ||
जयकृष्ण राय तुषार जी के नवगीत पर आप सभी ने प्रतिक्रिया लिखकर हमारा सहयोग किया है, आप सभी का आभार।
ReplyDelete-नवगीत