हीरामन ! कुछ भी कर लेना
गाँव नहीं आना खुशियों की चिड़ियों ने
पहले ही मुँह मोड़ा था
अब वो गाँव नहीं है
जिसको तुमने छोड़ा था
खेतों में अब फसल नहीं
बंदूकें उगती हैं
आतंकित हैं सहमी-
डरी हवाएँ चलती हैं
भूखे रह लेना या
आधी खकर सो जाना ।
हीरामन ! कुछ भी कर लेना
गाँव नहीं आना ।।
कलह यहाँ कजरी गाती है
गाता वैर मल्हारें
हर आँगन में छत से ऊँची
तनी हुई मीनारें
झगड़ रहा है खेत मेड़ से
आँगन से चौपालें
जिन्दा कबूतरों की रोज
उतारी जाती खालें
नहीँ सुनेगा कोई तेरा
राम राम गाना ।
हीरामन ! कुछ भी कर लेना
गाँव नहीं आना ।।
लाठी चला रही जूते से
सरपंची कानून
मुखिया के बेटे से बड़ा
न कोई अफलातून
बैठोगे तुम कहाँ
छतों पर बिछी हुई बारूद
डर से सूख गया उपवन का
वह छोटा अमरूद
हर उजली चादर का
बिखर गया ताना-बाना ।
हीरामन ! कुछ भी कर लेना
गाँव नहीं आना ।।
पीपल, बरगद, आम सभी हैं
फिर भी उजड़ा बाग
अपनी-अपनी ढफली सबकी
अपने-अपने राग
छुआ-छुपौवल, गुल्ली-डण्डा
कंचे खेल-तमाशा
सब उदास हैं सबके मन में
बैठी हुई हताशा
पागलपन मत करना, रहते
वहीं रहे जाना ।
हीरामन ! कुछ भी कर लेना
गाँव नहीं आना ।।
-रामसनेही लाल शर्मा यायावर
कलह यहाँ कजरी गाती है
ReplyDeleteगाता वैर मल्हारें
हर आँगन में छत से ऊँची
तनी हुई मीनारें
झगड़ रहा है खेत मेड़ से
आँगन से चौपालें
बहुत सुंदर नवगीत जिसके द्वारा आपने बदलते स्समय में गांव, घर परिवार में हो रहे विचलन, विघटन और बदलाव को बहुत ही सूक्षमता से उजागर किया है।
विसंगतियों का सुन्दर चित्रण
ReplyDeleteयकीनन अब गाँव में गाँव कहाँ है !!!
गाँव की बदली परिस्थिति को उजागर करती अच्छी रचना
ReplyDeleteखेतों में अब फसल नहीं
ReplyDeleteबंदूकें उगती हैं
आतंकित हैं सहमी-
डरी हवाएँ चलती हैं...
बदलती परिस्थितियों का बहुत ही सटीक और सुन्दर चित्रण..