हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी
जीवन ऐसे मोड़ों तक आ पहुँचा
आ जहाँ हृदय को सपने छोड़ गए
मरघट की सूनी पगडंडी तक ज्यों
कंधा दे शव को अपने छोड़ गए
सावन-भादो के मेघों के जैसा
मन भर-भर आया पीड़ा हुई घनी
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी
आशा के सुमन महक तो जाते पर
मुस्कानों वाले भ्रम ने मार दिया
पतझर को तो बदनामी व्यर्थ मिली
हमको मादक मौसम ने मार दिया
पूजन से तो इनक़ार नहीं था पर
अपने घर की मंदिर से नहीं बनी
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी
रंगों-गंधों में रहा नहाता पर
अपनापन इस पर भी मजबूरी है
कीर्तन में चाहे जितना चिल्लाए
मन की ईश्वर से फिर भी दूरी है
सौगंधों में अनुबंध रहे बँधते
पर मन में कोई चुभती रही अनी
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी
समझौतों के गुब्बारे बहुत उड़े
उड़ते ही सबकी डोरी छूट गई
विश्वास किसे क्या कहकर बहलाते
जब नींद लोरियाँ सुनकर टूट गई
सम्बंधों से हम जुड़े रहे यों ही
ज्यों जुड़ी वृक्ष से हो टूटी टहनी
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में उग आई नागफनी
-धनंजय सिंह
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