मुट्ठी भर धूप, दालान भर अँधेरे.
यह ही कुल पास बचा मेरे
पत्थर सा वर्तमान पाँवों में बाँधकर,
मोड़ों पर छोड़ गई लाकर,घटनाएँ
सीमा में दृष्टि की सिमट आया धुँधलापन
भीड़ में गई है धुल, अब सभी दिशाएँ
अधरों पर सिटकनी चढ़ा गई हवाएँ
आँखों में खालीपन, भर गए उजेरे
मुट्ठी भर धूप...
सारी उपलब्धियों, प्रयासों ने,
चन्द अभावों की बाँहों में दम तोड़े
लहरों के साथ बहे सारे अवलम्बन
पाँवों ने रेत भरे तट ज्यों ही छोड़े
और केन्द्र की तरफ सरक आए
परवशताओं के बिखरे-बिखरे घेरे
मुट्ठी भर धूप...
मील का प्रथम पत्थर
अब तक अनदेखा
जारी है लेकिन यात्राएँ
साथ सिर्फ दीमक चाटी
पुस्तक बचपन की,
यौवन घुन लगा,
और अनुभव कुछ मित्रों के
अमर बेल जैसी शंकाएँ
पहले से ही अवसर वादी थे साधन
सुविधाओं ने भी असमय ही, मुँह फेरे
मुट्ठी भर धूप...
मुट्ठी भर धूप,
दालान भर अँधेरे,
यह ही कुल पास बचा मेरे
-डॉ. विनोद निगम
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