कर दिये, लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्रतुम निश्चिन्त रहना
धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गया नत भाल, पर्वत हो गया मन
बूँद भर जल बन गया पूरा समुन्दर
पा तुम्हारा दुख, तथागत हो गया मन
अश्रु-जन्मा गीत-कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र
तुम निश्चिन्त रहना
दूर हूँ तुम से, न अब बातें उठेंगी
मैं स्वयं रंगीन दर्पन तोड़ आया
वह नगर, वह राजपथ, वे चौक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र
तुम निश्चिन्त रहना
लो, विसर्जन आज बासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाये कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोरपंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पायी प्रकाशित
मर चुका है एक एक चरित्र
तुम निश्चिन्त रहना
-किशन सरोज
प्रेम संबंधों में निराशा के बाद भी मर्यादा की सीमा में लिखा सुंदर गीत
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