हम झूठ बोलने के
इतने अभ्यस्त हुए
कहते कुछ और
बखान और कुछ करते हैं
चेहरों पर चिपके हुए
मुखौटों के युग में
हम बिना मुखौटे के
रहने में डरते हैं
जो सुबह सभा में
जोश भरे नारे देते
संध्या होते-होते
सस्ते बिक जाते हैं
आईना वक़्त का
नहीं अभी धुँधलाया है
जैसी जिसकी छवि है
इसमें दिख जाते हैं
अवसर बेईमानी का
जिनको नहीं मिला
बेईमानो को बहुत
गालियाँ देते हैं
जब कभी
दाँव लगता इनका
फिर मत पूछो
भ्रष्टों के सभी रिकार्ड
ध्वस्त कर देते हैं
है क़तरा-क़तरा खून
गुलामी का आदी
खिदमत करने के
हैं अभ्यस्त हुजूरों की
सभ्यता हमारी दरवारी
चाकरपन अपनी रग-रग में
क्या कहा !
‘सत्य’ को सत्य कहें
तौबा ! तौबा !
बाजीगर की बस्ती में तो
होती है पूछ जमूरों की
यूँ तो हम
सर से पाँव तलक ही झूठे हैं
पर, रौब जमाकर
सच साबित कर लेते हैं
हैं लोग अधिकतर
इस मज़में में बिके हुये
मतलब सधने पर
‘बाप’ गधों को कह लेते
देखे हमने कुछ संत
सीकरी में जाकर
फरसी आदाब बज़ाते
स्वारथ के नाते
इनकी लफ्फाजी पर
विश्वास न कर लेना
गिरगिट हैं
मौसम के अनुरूप
बदल जाते
देखी, लिजलिजी जरा सी भी
गुड़ की ढेली
ये स्वार्थ-कीट हैं
जाकर
वहीं चिपक जाते
पर
इस युग में भी
दो-चार झूठ के दुश्मन हैं
जो, अखिल विश्व के
आरोपों को सहते हैं
नाराज़
भले हो जाये उनसे सिंहासन
पर बात उसूलों की
वे, निर्भय कहते हैं
हम झूठ .......
-डॉ० जगदीश व्योम
इतने अभ्यस्त हुए
कहते कुछ और
बखान और कुछ करते हैं
चेहरों पर चिपके हुए
मुखौटों के युग में
हम बिना मुखौटे के
रहने में डरते हैं
जो सुबह सभा में
जोश भरे नारे देते
संध्या होते-होते
सस्ते बिक जाते हैं
आईना वक़्त का
नहीं अभी धुँधलाया है
जैसी जिसकी छवि है
इसमें दिख जाते हैं
अवसर बेईमानी का
जिनको नहीं मिला
बेईमानो को बहुत
गालियाँ देते हैं
जब कभी
दाँव लगता इनका
फिर मत पूछो
भ्रष्टों के सभी रिकार्ड
ध्वस्त कर देते हैं
है क़तरा-क़तरा खून
गुलामी का आदी
खिदमत करने के
हैं अभ्यस्त हुजूरों की
सभ्यता हमारी दरवारी
चाकरपन अपनी रग-रग में
क्या कहा !
‘सत्य’ को सत्य कहें
तौबा ! तौबा !
बाजीगर की बस्ती में तो
होती है पूछ जमूरों की
यूँ तो हम
सर से पाँव तलक ही झूठे हैं
पर, रौब जमाकर
सच साबित कर लेते हैं
हैं लोग अधिकतर
इस मज़में में बिके हुये
मतलब सधने पर
‘बाप’ गधों को कह लेते
देखे हमने कुछ संत
सीकरी में जाकर
फरसी आदाब बज़ाते
स्वारथ के नाते
इनकी लफ्फाजी पर
विश्वास न कर लेना
गिरगिट हैं
मौसम के अनुरूप
बदल जाते
देखी, लिजलिजी जरा सी भी
गुड़ की ढेली
ये स्वार्थ-कीट हैं
जाकर
वहीं चिपक जाते
पर
इस युग में भी
दो-चार झूठ के दुश्मन हैं
जो, अखिल विश्व के
आरोपों को सहते हैं
नाराज़
भले हो जाये उनसे सिंहासन
पर बात उसूलों की
वे, निर्भय कहते हैं
हम झूठ .......
-डॉ० जगदीश व्योम
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