Saturday, May 27, 2023

कुछ न मिला जब

कुछ न मिला जब 
धनुर्धरों से
बंशी वारे से 
हार-हूर कर माँग रहे हैं
भील-भिलारे से 

ला चकमक तो दे
चिंतन में आग लगाना है
थोड़ी सी किलकारी दे
बच्चे बहलाना है
कैसे डरे डरे बैठे हैं
अक्षर कारे से 
कुछ न मिला जब... 

हम पोशाकें पहन
पिघलते रहते रखे-रखे
तूने तन-मन कैसे साधा
नंग-मनंग सखे
हमको भी चंगा कर
गंडा, बूटी, झारे से 
कुछ न मिला जब... 

हम कवि हैं
चकोरमुख से अंगार छीनते हैं
बैठे-ठाले शब्दकोश के
जुएँ बीनते हैं
मिले तिलक छापे
गुरुओं के पाँव पखारे से 
कुछ न मिला जब... 

एक बददुआ-सी है मन में
कह दें, तो बक दूँ,
एक सेर महुआ के बदले
गोरी पुस्तक दूँ,
हमें मिला सो तू भी पा ले
ज्ञान उजारे से 
कुछ न मिला जब... 

-महेश अनघ

Thursday, May 11, 2023

चलिए, बाजार तक चलें

एक  अदद
शब्द के लिए
चलिए, 
बाजार तक चलें
मौसम का
हाल पूछने -
ताज़ा अख़बार तक चलें ।

 ज़िस्म मेमने
 का क्या हुआ
 बेतुका सवाल छोड़िए
 स्वाद के नशे में घूमते
 भेड़िए को हाथ जोड़िए
 ज़ुर्म की शिनाख़्त के लिए
 आला दरबार तक चलें ।
 
 ऐसी आंँधी गुज़र  गई
 ज़हर हुए, वन, नदी, पहाड़
 सगे-सगे लगे हैं हमें
 डोलते कबंध, कटे ताड़
 लदे हरसिंगार के लिए
 छपे इश्तेहार तक चलें। 

जोंक जो हुई ये ज़िन्दगी
उम्र है ढहा  हुआ किला
तेंदुए मिले कभी-कभी
आदमी कहीं नहीं मिला
आइए, तलाश के लिए
इसी यादगार तक चलें। 
    
-उमाशंकर तिवारी

Saturday, May 06, 2023

सूरज की प्रत्यंचा पर

सूरज की प्रत्यंचा पर जब
चढ़े धूप के तीर 

निकला है आखेट खेलने
पहन पगड़िया लाल
अंगरखा केसरिया सोहे
दमके स्वर्णिम भाल
सप्त अश्व-रथ दौड़ रहा है
मेघ शृंखला चीर
सूरज की प्रत्यंचा... 

डर के मारे नदी ताल के
प्राण गए हैं सूख
मूर्छित सरि- तट की हरियाली
कौन मिटाए भूख
बुझी नहीं सूरज की तृष्णा 
पीकर सारा नीर
सूरज की प्रत्यंचा... 

अलसायी सोयी पेड़ों में
ज्वर-पीड़िता बयार
बिगड़े देख सूर्य के तेवर
चढ़ता तेज बुखार
तप्त हवा के उच्छ्वासों में
लपटों जैसी पीर
सूरज की प्रत्यंचा... 

निष्क्रिय हुआ सृष्टि का खेमा
चेतनशून्य निढाल
निष्प्रभ करने लगीं झुर्रियाँ
वसुन्धरा का भाल
कण्ठ शुष्क औ' दग्ध हृदय है
चुकने को है धीर
सूरज की प्रत्यंचा... 

-सुधा राठौर

न बहुरे लोक के दिन

मूँद कर आँखें 
भरोसा था किया,
न बहुरे लोक के दिन 

खेत चलकर आ गये  
चकरोड पर 
और फसलों ने रखा 
व्रत निर्जला, 
रेंगती मुन्सिफ़ के जूँ 
न कान  पर 
दाँव बदले चाँद, 
ज्यों षोडश कला 
न्याय पैंताने डुलाता 
है चँवर, 
न टरते शोक के दिन 
न बहुरे... 

आवरण में नित 
ककहरे झूठ के,
हैं परोसे तंत्र ने 
जन के लिए 
चेतना के पाँव 
कीले हैं गये 
सत्य का हर स्वर 
विलोपन के लिए 
रोकनी हैं मिल 
दमन की पारियाँ,
न हैं अब धोक के दिन 
न बहुरे... 

हर क़लम का जो, 
असल दायित्व है 
धार पर चल 
चेतना का स्वर भरे 
क्यों कहेगी बात 
न ईमान की, 
डर बिगाड़े का क़लम 
कब मन धरे 
जो जबर बन छल रहे 
लो, आ गये
उन्हीं की टोक के दिन 
न बहुरे... 

  -अनामिका सिंह

अम्मा की सुध आई

शाम सबेरे शगुन मनाती 
खुशियों की परछाई 
अम्मा की सुध आई 

बड़े सिदौसे उठी बुहारे 
कचरा कोने - कोने 
पलक झपकते भर देती 
थी नित्य भूख को दोने 
जिसने बचे खुचे से अक्सर 
अपनी भूख मिटाई 
अम्मा की सुध आई 

तुलसी चौरे पर मंगल के 
रोज चढ़ाए लोटे
चढ़ बैठीं जा उसकी खुशियाँ
जाने किस परकोटे 
किया गौर कब आँखों में थी 
जमी पीर की काई 
अम्मा की सुध आई 

पूस कटा जो बुने रात-दिन
दो हाथों ने फंदे
आठ पहर हर बोझ उठाया 
थके नहीं वो कंधे
एक इकाई ने कुनबे की 
जोड़े रखी दहाई 
अम्मा की सुध आई 

बाँधे रखती थी कोंछे हर
समाधान की चाबी 
बनी रही उसके होने से 
बाखर द्वार नवाबी 
अपढ़ बाँचती मौन पढ़ी थी
जाने कौन पढ़ाई 
अम्मा की सुध आई 

-अनामिका सिंह

पाँच जोड़ बाँसुरी

बासंती रात के निर्मल
पल आखिरी
बेसुध पल आखिरी,
विह्वल पल आखिरी
पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

वंशी-स्वर उमड़-घुमड़ रो रहा
मन उठ चलने को हो रहा
धीरज की गाँठ खुली लो, लेकिन
आधे अँचरे पर पिया सो रहा
मन मेरा तोड़ रहा पाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
बासंती रात के निर्मल
पल आखिरी
बेसुध पल आखिरी
विह्वल पल आखिरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

-ठाकुर प्रसाद सिंह

उपवन का सन्नाटा

उपवन का सन्नाटा
एक चीख तोड़ गई
अनगिन संदर्भों के
प्रश्नचिह्न छोड़ गई

आँख है गुलाबों
शूलों की कारा में
आँगन की मर्यादा
शापों की धारा में
गाँव के अबोलों से
रिश्तों की टूटन भी
राखी के हाथों को
असमय मरोड़ गई
उपवन का... 

शैतानी मंसूबे
दाँव लगा जीत गए
पनघट के प्रेमभरे
कुंभ- कुंभ रीत गए
सदियों के स्निग्ध स्नात
खेतों की पगडंडी
बारूदी गलियारे
अनचाहे जोड़ गई
उपवन का... 

श्लोकों-सी जिंदगी
नारों में डूब गई
घाटों में बँधी हुई
नौका-सी ऊब गई
मावस का अविश्वास
जूड़े-सा छूट गया
दामिनी घट कालिख का
दुपहर में फोड़ गई.

-जीवन शुक्ल

मेरा अलग संवाद

मैं नहीं हूँ पात्र नाटक का तुम्हारे
इसलिए मेरा अलग संवाद लगता

बोलते भाषा तुम्हारी, अन्य हैं वे
शब्द तुमसे ऋण में लेकर
धन्य हैं वे
है वही मुद्रा कि जैसी है तुम्हारी
शक्ल तक कठपुतलियों की है उधारी
मंच पर जो लोग हैं, मौलिक नहीं हैं
शब्दश: हर आदमी अनुवाद लगता
मैं नहीं हूँ... 

दोस्ती क्या, दुश्मनी भी है दिखावा
है घृणा क्या, प्रेम का भी व्यर्थ दावा
क्रोध झूठा, है यहाँ मुस्कान झूठी
सुख भी झूठा, दुख भी झूठा
शान झूठी
मर चुक संवेदनाएँ, भाव लेकिन-
क्या प्रदर्शन है कि जिंदाबाद लगता
मैं नहीं हूँ... 

खींचता हूँ मैं यहाँ परदे की डोरी
हूँ जरा बदले जमाने का मैं होरी
खींच दूँ परदा तो नाटक बंद समझो
बीच में ही आखिरी का छंद समझो
मंच पर होकर भी मैं न मंच का हूँ
इसलिए इस मंच पर अपवाद लगता.
मैं नहीं हूँ... 

-जीवन यदु 

Friday, April 07, 2023

गीत-विहग उतरा

हल्दी चढ़ी
पहाड़ी देखी
मेंहदी रची धरा 
अँधियारे के साथ
पाहुना गीत-विहग उतरा 

गाँव फूल-से
गूँथ दिये
सर्पिल पगडण्डी ने 
छोर फैलते 
गये मसहरी के
झीने-झीने 
दिन,
जैसे बाँसुरी बजाता
बनजारा गुज़रा 
पाहुना गीत-विहग... 

पोंछ पसीना
ली अँगड़ाई
थकी क्रियाओं ने 
सौंप दिये
मीठे सम्बोधन
खुली भुजाओं ने 
जोड़ गया 
सन्दर्भ मनचला 
मौसम हरा-भरा 
पाहुना गीत-विहग... 

-रमेश रंजक

सम्बोधन झूले

सुधियों की अरगनी 
बाँध कर सम्बोधन झूले
सहन भर गीत फूल-फूले

सर्वनाम आकर सिरहाने
माथा दबा गया
अनबुहरा घर लगा दीखने
फिर से नया-नया
तन-मन हल्का हुआ, 
अश्रु का भारीपन भूले
सहन भर... 

मिली, खिली रोशनी, अँधेरा
पीछे छूट गया
ऐसा लगा कि दीवाली का
दर्पण टूट गया
लगे दीखने तारे 
जैसे हों लँगड़े-लूले
सहन भर... 

हवा किसी रसवन्ती ऋतु की
साँकल खोल गई
होठों की पंखुरी न खोली
फिर भी बोल गई
सम्भव है यह गन्ध 
तुम्हारे आँचल को छू ले
सहन भर... 

दमक उठे दालान, देहरी
महकी क्यारी-सी
लगी चहकने अनबोली
बाखर फुलवारी-सी
झूम उठे सारे वातायन 
भीनी ख़ुशबू ले
सहन भर... 

-रमेश रंजक

Friday, March 03, 2023

फिर कुण्डी खटकी है

फिर कुण्डी खटकी है शुभदे
देख नया दुख आया होगा
खुद चल कर आया होगा/या
अपनों ने पहुंचाया होगा.

सबके हिस्से में से,थोड़ी-थोड़ी
रोटी और घटाले
दाल जरा सी है तो क्या है
थोड़ा पानी और बढ़ा ले
भूख उसे लग आई होगी
पता नहीं कब खाया होगा.

इतने जब पलते आए हैं
एक और भी पल जायेगा
खुश हो पगली,हमको भी इक
नया सहारा मिल जाएगा
दुख ही तो ऐसा साथी है
जो न कभी पराया होगा.

ये बेचारे कहां ठहर पाते हैं
सूरज वालों के घर
इनकी गुजर-बसर होती है
हम जैसे कंगालों के दर
पूछ देख ले किसी हवेली ने
दुत्कार भगाया होगा?

-प्रदीप दुबे

Thursday, November 10, 2022

मत कहना

ख़बरदार

‘राजा नंगा है‘

मत कहना


राजा नंगा है तो है

इससे तुमको क्या

सच को सच

कहने पर

होगी घोर समस्या

सभी सयाने चुप हैं

तुम भी चुप रहना

ख़बरदार...


राजा दिन को

रात कहे तो

रात कहो तुम

राजा को जो भाये

वैसी बात करो तुम

जैसे राखे राजा

वैसे ही रहना

ख़बरदार...


राजा जो बोले

समझो कानून वही है

राजा उल्टी चाल चले

तो वही सही है

इस उल्टी गंगा में

तुम उल्टा बहना

ख़बरदार...


राजा की तुम अगर

खिलाफ़त कभी करोगे

चौराहे पर सरेआम

बेमौत मरोगे

अब तक सहते आये हो

अब भी सहना

ख़बरदार...       


-सत्यनारायण


अजीब दृश्य है

अजीब दृश्य है



सभाध्यक्ष हंँस रहा 

सभासद

कोरस गाते हैं


जय-जयकारों का

अनहद है

जलते जंगल में

कौन विलाप सुनेगा

घर का

इस कोलाहल में

पंजों से मुंँह दबा

हमारी

चीख दबाते हैं


चंदन को

अपने में घेरे

सांँप मचलते हैं

अश्वमेघ के

घोड़े बैठे

झाग उगलते हैं

आप चक्रवर्ती हैं-

राजन!

वे चिल्लाते हैं


अजब दृश्य है

लहरों पर

जालों के घेरे हैं

तड़प रही मछलियांँ

बहुत खुश

आज मछेरे हैं

कौन नदी की सुने

कि जब

यह रिश्ते-नाते हैं

        

 -सत्यनारायण


Thursday, October 13, 2022

प्रहर,दिवस, मास, वर्ष बीते

प्रहर,दिवस, मास, वर्ष बीते
जीवन का कालकूट पीते.

पूँछें उपलब्धियाँ हुईं
खेलते हुए साँप-सीढ़ी
मंत्रित-निस्तब्ध सो गयी
युद्ध-भूमि में युयुत्सु पीढ़ी
कंधों पर ले निषंग रीते
प्रहर,दिवस, मास...

खुद ही अज्ञातवास ओढ़कर 
धनञ्जय बृहन्नला हुआ 
मछली फिर तेल पर टँगी है
धनुष पड़ा किंतु अनछुआ 
कौन इस स्वयंवर को जीते
प्रहर,दिवस, मास...

जाने कैसा निदाघ तपता है
आग भर गयी श्यामल घन में
दावानल कौन बो गया
चीड़-शाल-देवदारु-वन में
अकुलाये सिंह-व्याघ्र-चीते
प्रहर,दिवस, मास...

-धनञ्जय सिंह

ध्यान रहे

जो आंँखों के पानी में है ध्यान रहे
 वो मेरी निगरानी में है ध्यान रहे

 अंधकार में
 डूबी-डूबी रातों की
 देखा देखी
 नहीं चलेगी बातों की
 इक मुश्किल
आसानी में है ध्यान रहे
जो आंँखों के पानी में है...

 बाज़ारों में
 आज गिरावट भारी है
 जीवन मूल्यों का
 मिटना भी जारी है
 हर रिश्ता
 हैरानी में है ध्यान रहे
जो आंँखों के पानी में है...

 आई घर में
 छंद मुक्त हो भौतिकता
 कविताओं की
 नष्ट हो गई मौलिकता
 जो तुलसी की
 बानी में है ध्यान रहे
जो आंँखों के पानी में है...

-विनय मिश्र

Tuesday, October 11, 2022

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी !
दूर गये कज्जल घन, श्यामल-
अम्बर में निखरी !

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी !
मन्द समीरण, शीतल सिहरन, 
तनिक अरुण द्युति छाई,
रिमझिम में भीगी धरती, 
यह चीर सुखाने आई,
लहरित शस्य-दुकूल हरित, 
चंचल अचंल-पट धानी,
चमक रही मिट्टी न, 
देह दमक रही नूरानी,
अंग-अंग पर धुली-धुली,
शुचि सुन्दरता सिहरी !

राशि-राशि फूले फहराते 
काश धवल वन-वन में,
हरियाली पर तोल रही 
उड़ने को नील गगन में,
सजल सुरभि देते नीरव 
मधुकर की अबुझ तृषा को,
जागरूक हो चले कर्म के 
पंथी ल्क्ष्य-दिशा को,
ले कर नई स्फूर्ति कण-कण पर
नवल ज्योति उतरी !

मोहन फट गई प्रकृति की, 
अन्तर्व्योम विमल है,
अन्धस्वप्न फट व्यर्थ बाढ़ का 
घटना जाता जल है,
अमलिन सलिला हुई सरी,
शुभ-स्निग्ध कामनाओं की,
छू जीवन का सत्य, 
वायु बह रही स्वच्छ साँसों की,
अनुभवमयी मानवी-सी यह
लगती प्रकृति-परी !

-राजेन्द्र प्रसाद सिंह

Monday, August 08, 2022

दिशा भरम

दुविधाओं की पगडण्डी पर 
भटके जनम-जनम
जितने जीवन में चौराहे 
उतने दिशा भरम 

धीरज संयम और सबूरी 
शब्द बहुत ही हलके 
अधरों से जब पीर छुपाओ 
आँखों से क्यों छलके 
ऊपर-ऊपर बर्फ़ भले हो 
भीतर धरा गरम
जितने जीवन में...

फटे हुए अंतः वस्त्रों पर 
रोज़ नयी पोशाकें 
आज़ादी का जश्न दासियाँ 
घूँघट में से ताकें 
ऊपर जितना तेज उजाला 
नीचे उतना तम
जितने जीवन में... 

भीतर पानी में जीवन है 
भले जमी हो काई 
पिंजरे की चिड़िया सपने में 
अम्बर तक हो आयी 
मन की अपनी मुक्त उड़ाने 
तन के सख़्त नियम 
जितने जीवन में चौराहे 
उतने दिशा भरम 

-संध्या सिंह

वर्षा-दिनः एक आफि़स

जलती-बुझती रही
दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।
वर्षा थी,
यों अपने घर से 
धूप नहीं निकली।

सुबह-सुबह आवारा बादल 
गोली दाग़ गया
सूरज का चपरासी डरकर
घर को भाग गया
गीले मेज़पोश वाली-
भू-मेज़ रही इकली
वर्षा थी, यूँ अपने घर से 
धूप नहीं निकली।

आज न आई आशुलेखिका 
कोई किरण-परी
विहग-लिपिक ने
आज न खोली पंखों की छतरी
सी-सी करती पवन
पिच गई स्यात् कहीं उँगली।
वर्षा थी, यों अपने घर से 
धूप नहीं निकली

ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल 
कोई शब्द नहीं
स्याही बहुत
किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं
सिर्फ़ अकेलेपन की छाया
कुर्सी से उछली।
वर्षा थी, यों अपने घर से 
धूप नहीं निकली

-कुँअर बेचैन

Saturday, August 06, 2022

उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से।
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से।।

हर पुरवा का झोंका तेरा घूँघरू
हर बादल की रिमझिम तेरी भावना
हर सावन में तेरे आँसू की व्यथा
हर कोयल की ‘कुहू’ में तेरी कल्पना
जितनी दूर खुशी हर ग़म से
जितनी दूर साज़ सरगम से
जितनी दूर पात पतझर का, छाँव से।
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से।।

हर पत्ते में तेरा हरियाला बदन
हर कलिका में तेरी ही प्रिय साधना
हर डाली में तेरे तन की झाँइयाँ
हर मंदिर में तेरी ही आराधना
जितनी दूर रूप घूँघट से
जितनी दूर प्यास पनघट से
गागर जितनी दूर नीर की ठाँव से।
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से।।

क्या है, कैसा है, कैसे मैं यह कहूँ
तुझसे दूर, अपरिचित, फिर भी प्रीत है
है इतना मालूम कि तू हर साँस में
बसा हुआ जैसे मन में संगीत है
जितनी दूर लहर हर तट से
जितनी दूर शोखियाँ लट से
जितनी दूर याद कागा की काँव से।
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से।।
             
             
-डा० कुँअर बेचैन

सपने में आये हो बैठो

सपने में आये हो बैठो
कोई बात करो।
मौसम बहुत उदार यहाँ का
उर का ताप हरो।।

स्वप्न-देश में मेरा शासन
मैं ही इसकी रानी
सुधियाँ तुम्हें खींच लाई हैं
करने को मनमानी
निष्कासित हर नियम यहाँ से,
मन चाहा बिचरो।
सपने में आये हो बैठो
कोई बात करो।।

बैसे तो मैं मात्र व्यथा हूँ
सपने में हूँ नारी
पढ़कर नयन हृदय पर लिख दूँ
भाषा अति शृंगारी
ऐसे में मत रहो देवता
मानव बन निखरो।
सपने में आये हो बैठो
कोई बात करो।।

जागूँ तो कबीर की साखी
सोऊँ, पंक्ति बिहारी
मुख खोलूँ तो बंजारिन हूँ
घूँघट में ब्रजनारी
विद्यापति की मुखर नायिका
इतना ध्यान धरो।
सपने में आये हो बैठो
कोई बात करो।।
   
-ज्ञानवती सक्सेना

Tuesday, July 26, 2022

तुम कुछ मत कहना

 बेटा ! 
निर्वाचित प्रधान से
तुम कुछ मत कहना

चाहें कायाकल्प
गाँव से कोसों दूर रहे
या गलियों में
जातिवाद वाला दस्तूर रहे
तुम तो 
अपनी लघुता की
सीमाओं में रहना
बेटा ! ... 

ग्राम सभा वाली 
ज़मीन पर लाठी चलनी है
और विपक्षी के 
खेतों से सड़क निकलनी है
अभी
रक्त को भी है 
फूटे सिर में से बहना
बेटा ! ... 

जत्था रहता है
प्रधान के साथ दबंगों का
जो कट्टर दुश्मन है
मानवता के अंगों का
और
समझता है जो
हिंसा को अपना गहना
बेटा ! ... 

-विवेक चतुर्वेदी

Sunday, July 24, 2022

पारिजात के फूल

सारी रात झरे आँगन में
पारिजात के फूल

महके प्राण-प्रणव, जागे हैं
अनगिन सुप्त शिवाले
कई अबूझी रही सुरंगें
फैले भोर उजाले
दीप-दान करती सुहागिनें
द्वार नदी के कूल

वन-प्रांतर में मृग-शावक-दल
भरने लगे कुलाँचें
बिना मेघ, नभ के जादू से
मन-मयूर भी नाचे
झूम-झूम कर पेड़ों ने, है
झाडी़ लिपटी धूल

ले सुदूर से आये पाखी
मनभावन संदेशे
देह-देह झंकृत वीणा-सी
पुलकन रेशे-रेशे
दूब गलीचे बिछे, हटे हैं
यात्रा-पथ के शूल

-शशिकांत गीते

तुम निश्चिन्त रहना

कर दिये, लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र
तुम निश्चिन्त रहना

धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गया नत भाल, पर्वत हो गया मन
बूँद भर जल बन गया पूरा समुन्दर
पा तुम्हारा दुख, तथागत हो गया मन
अश्रु-जन्मा गीत-कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र
तुम निश्चिन्त रहना

दूर हूँ तुम से, न अब बातें उठेंगी
मैं स्वयं रंगीन दर्पन तोड़ आया
वह नगर, वह राजपथ, वे चौक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र
तुम निश्चिन्त रहना

लो, विसर्जन आज बासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाये कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोरपंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पायी प्रकाशित
मर चुका है एक एक चरित्र
तुम निश्चिन्त रहना
         
-किशन सरोज

Wednesday, July 06, 2022

साधो दरस परस सब छूटे

साधो दरस परस सब छूटे 
सूख गई पन्नों की स्याही 
संवादों के रस छूटे
साधो! दरस परस सब छूटे।

मृत अतीत की नई व्याख्या 
पढ़ना सुनना है
शेष विकल्प नहीं अब कोई 
फिर भी चुनना है
रातें और संध्याएँ छूटीं 
अब कुनकुने दिवस छूटे 
साधो! दरस परस सब छूटे।

नहीं निरापद हैं यात्राएँ 
उठते नहीं कदम
रोज-रोज सपनों का मरना
देख रहे हैं हम
हाथों से उड़ गए कबूतर 
कौन बताए कस छूटे
साधो! दरस परस सब छूटे।

आदमकद हो गए आइने
चेहरे बौने हैं
नोन, राई, अक्षत,सिंदूर के
जादू-टोने के
लहलहाई अपयश की फसलें 
जनम-जनम के यश छूटे 
साधो! दरस परस सब छूटे।
     
-शिवकुमार अर्चन

Wednesday, June 08, 2022

एक मोर का पंख

एक मोर का पंख रखा है
 बरसों पढ़ी किताब में

 मार कोहनी संकेतों की
 अक्षर हैं बौराये
 सहमे हुए अर्थ के पंछी
 मगर कहांँ उड़ पाये
 सदियों चलकर
 सच की दुनिया
 टिकी हुई है ख़्वाब में
एक मोर का पंख रखा है...

 जाने सच है या केवल
 यह मौसम की है लेखी
 मीठे संबंधों में अक्सर
 तनातनी है देखी
 रिश्ते कायम
 वैसे ही हैं
 कांँटे और गुलाब में
एक मोर का पंख रखा है...

 आंँखों में दिन भर की बातें
 लिए टहलती शामें
 बाहर चुप्पी लेकिन भीतर
 चाहों के हंगामे
 छवियांँ जगतीं रहीं
  रात भर
 यादों के मेहराब में
एक मोर का पंख रखा है

-विनय मिश्र