Saturday, May 27, 2023
कुछ न मिला जब
Thursday, May 11, 2023
चलिए, बाजार तक चलें
Saturday, May 06, 2023
सूरज की प्रत्यंचा पर
न बहुरे लोक के दिन
अम्मा की सुध आई
पाँच जोड़ बाँसुरी
उपवन का सन्नाटा
मेरा अलग संवाद
Friday, April 07, 2023
गीत-विहग उतरा
सम्बोधन झूले
Friday, March 03, 2023
फिर कुण्डी खटकी है
Thursday, November 10, 2022
मत कहना
ख़बरदार
‘राजा नंगा है‘
मत कहना
राजा नंगा है तो है
इससे तुमको क्या
सच को सच
कहने पर
होगी घोर समस्या
सभी सयाने चुप हैं
तुम भी चुप रहना
ख़बरदार...
राजा दिन को
रात कहे तो
रात कहो तुम
राजा को जो भाये
वैसी बात करो तुम
जैसे राखे राजा
वैसे ही रहना
ख़बरदार...
राजा जो बोले
समझो कानून वही है
राजा उल्टी चाल चले
तो वही सही है
इस उल्टी गंगा में
तुम उल्टा बहना
ख़बरदार...
राजा की तुम अगर
खिलाफ़त कभी करोगे
चौराहे पर सरेआम
बेमौत मरोगे
अब तक सहते आये हो
अब भी सहना
ख़बरदार...
-सत्यनारायण
अजीब दृश्य है
अजीब दृश्य है
सभाध्यक्ष हंँस रहा
सभासद
कोरस गाते हैं
जय-जयकारों का
अनहद है
जलते जंगल में
कौन विलाप सुनेगा
घर का
इस कोलाहल में
पंजों से मुंँह दबा
हमारी
चीख दबाते हैं
चंदन को
अपने में घेरे
सांँप मचलते हैं
अश्वमेघ के
घोड़े बैठे
झाग उगलते हैं
आप चक्रवर्ती हैं-
राजन!
वे चिल्लाते हैं
अजब दृश्य है
लहरों पर
जालों के घेरे हैं
तड़प रही मछलियांँ
बहुत खुश
आज मछेरे हैं
कौन नदी की सुने
कि जब
यह रिश्ते-नाते हैं
-सत्यनारायण
Thursday, October 13, 2022
प्रहर,दिवस, मास, वर्ष बीते
ध्यान रहे
Tuesday, October 11, 2022
शरद की स्वर्ण किरण बिखरी
दूर गये कज्जल घन, श्यामल-
अम्बर में निखरी !
शरद की स्वर्ण किरण बिखरी !
मन्द समीरण, शीतल सिहरन,
रिमझिम में भीगी धरती,
लहरित शस्य-दुकूल हरित,
चमक रही मिट्टी न,
अंग-अंग पर धुली-धुली,
शुचि सुन्दरता सिहरी !
राशि-राशि फूले फहराते
हरियाली पर तोल रही
सजल सुरभि देते नीरव
जागरूक हो चले कर्म के
ले कर नई स्फूर्ति कण-कण पर
नवल ज्योति उतरी !
मोहन फट गई प्रकृति की,
अन्धस्वप्न फट व्यर्थ बाढ़ का
अमलिन सलिला हुई सरी,
छू जीवन का सत्य,
अनुभवमयी मानवी-सी यह
लगती प्रकृति-परी !
-राजेन्द्र प्रसाद सिंह
Monday, August 08, 2022
दिशा भरम
वर्षा-दिनः एक आफि़स
Saturday, August 06, 2022
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से
सपने में आये हो बैठो
Tuesday, July 26, 2022
तुम कुछ मत कहना
Sunday, July 24, 2022
पारिजात के फूल
महके प्राण-प्रणव, जागे हैं
अनगिन सुप्त शिवाले
कई अबूझी रही सुरंगें
फैले भोर उजाले
दीप-दान करती सुहागिनें
द्वार नदी के कूल
वन-प्रांतर में मृग-शावक-दल
भरने लगे कुलाँचें
बिना मेघ, नभ के जादू से
मन-मयूर भी नाचे
झूम-झूम कर पेड़ों ने, है
झाडी़ लिपटी धूल
ले सुदूर से आये पाखी
मनभावन संदेशे
देह-देह झंकृत वीणा-सी
पुलकन रेशे-रेशे
दूब गलीचे बिछे, हटे हैं
यात्रा-पथ के शूल
-शशिकांत गीते
तुम निश्चिन्त रहना
तुम निश्चिन्त रहना
धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गया नत भाल, पर्वत हो गया मन
बूँद भर जल बन गया पूरा समुन्दर
पा तुम्हारा दुख, तथागत हो गया मन
अश्रु-जन्मा गीत-कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र
तुम निश्चिन्त रहना
दूर हूँ तुम से, न अब बातें उठेंगी
मैं स्वयं रंगीन दर्पन तोड़ आया
वह नगर, वह राजपथ, वे चौक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र
तुम निश्चिन्त रहना
लो, विसर्जन आज बासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाये कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोरपंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पायी प्रकाशित
मर चुका है एक एक चरित्र
तुम निश्चिन्त रहना
-किशन सरोज