हम उदास हैं
और नदी में आग लगी है
कैसा है दिन !
अंधे सपनों का आश्वासन
हमें मिला है
नदी-किनारे फिर
ज़हरीला फूल खिला है
दिन-भर सोई
आँख बावरी रात जगी है
कैसा है दिन!
और नदी में आग लगी है
कैसा है दिन !
अंधे सपनों का आश्वासन
हमें मिला है
नदी-किनारे फिर
ज़हरीला फूल खिला है
दिन-भर सोई
आँख बावरी रात जगी है
कैसा है दिन!
छली हवाओं ने
जंगल में पतझर बाँटे
सीने में चुभ रहे
सैकड़ों पिछले काँटे
बस्ती-बस्ती
शाहों की चल रही ठगी है
कैसा है दिन!
आदमक़द कारों से निकले
चौपट बौने
सहमे घूम रहे हैं
जंगल में मृगछौने
धुनें पराई
हम सबको लग रहीं सगी हैं
कैसा है दिन
-कुमार रवीन्द्र
सोचने को विवश करती रचना
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteवाह बहुत खूब कहा आपने
ReplyDeleteआदमक़द कारों से निकले
चौपट बौने.....
आदमकद कारों से निकले
ReplyDeleteचौपट बौने
बेहतरीन नव गीत
वाह हम उदास, नदी में आग लगी है इस पंक्ति ने मंत्रमुग्ध कर दिया । शानदार
ReplyDeleteछली हवाओं ने
ReplyDeleteजंगल में पतझर बाँटे...
बहुत बढ़िया नवगीत