tag:blogger.com,1999:blog-145298442024-03-29T16:32:59.910+05:30नवगीत कोई नवगीत ऐसा है जिसे आप पढ़ना चाहते हैं और वह यहाँ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है तो हमें सूचित कर सकते हैं अथवा उस नवगीत को भेज सकते हैं-jagdishvyom@gmail.com
-सम्पादकUnknownnoreply@blogger.comBlogger53125tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-66419784157935414852023-12-21T21:40:00.001+05:302023-12-21T21:40:10.107+05:30सम्बोधन झूले<div>सुधियों की अरगनी </div><div>बाँध कर सम्बोधन झूले</div><div>सहन भर गीत फूल-फूले</div><div><br /></div><div>सर्वनाम आकर सिरहाने</div><div>माथा दबा गया</div><div>अनबुहरा घर लगा दीखने</div><div>फिर से नया-नया</div><div>तन-मन हल्का हुआ, </div><div>अश्रु का भारीपन भूले</div><div>सहन भर... </div><div><br /></div><div>मिली, खिली रोशनी, अँधेरा</div><div>पीछे छूट गया</div><div>ऐसा लगा कि दीवाली का</div><div>दर्पण टूट गया</div><div>लगे दीखने तारे </div><div>जैसे हों लँगड़े-लूले</div><div>सहन भर... </div><div><br /></div><div>हवा किसी रसवन्ती ऋतु की</div><div>साँकल खोल गई</div><div>होठों की पंखुरी न खोली</div><div>फिर भी बोल गई</div><div>सम्भव है यह गन्ध </div><div>तुम्हारे आँचल को छू ले</div><div>सहन भर... </div><div><br /></div><div>दमक उठे दालान, देहरी</div><div>महकी क्यारी-सी</div><div>लगी चहकने अनबोली</div><div>बाखर फुलवारी-सी</div><div>झूम उठे सारे वातायन </div><div>भीनी ख़ुशबू ले</div><div>सहन भर... </div><div><br /></div><div>-रमेश रंजक</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-7315055977641765472023-12-19T09:05:00.001+05:302023-12-19T09:05:09.289+05:30मेरा अलग संवाद<div>मैं नहीं हूँ पात्र नाटक का तुम्हारे</div><div>इसलिए मेरा अलग संवाद लगता</div><div><br /></div><div>बोलते भाषा तुम्हारी, अन्य हैं वे</div><div>शब्द तुमसे ऋण में लेकर</div><div>धन्य हैं वे</div><div>है वही मुद्रा कि जैसी है तुम्हारी</div><div>शक्ल तक कठपुतलियों की है उधारी</div><div>मंच पर जो लोग हैं, मौलिक नहीं हैं</div><div>शब्दश: हर आदमी अनुवाद लगता</div><div>मैं नहीं हूँ... </div><div><br /></div><div>दोस्ती क्या, दुश्मनी भी है दिखावा</div><div>है घृणा क्या, प्रेम का भी व्यर्थ दावा</div><div>क्रोध झूठा, है यहाँ मुस्कान झूठी</div><div>सुख भी झूठा, दुख भी झूठा</div><div>शान झूठी</div><div>मर चुक संवेदनाएँ, भाव लेकिन-</div><div>क्या प्रदर्शन है कि जिंदाबाद लगता</div><div>मैं नहीं हूँ... </div><div><br /></div><div>खींचता हूँ मैं यहाँ परदे की डोरी</div><div>हूँ जरा बदले जमाने का मैं होरी</div><div>खींच दूँ परदा तो नाटक बंद समझो</div><div>बीच में ही आखिरी का छंद समझो</div><div>मंच पर होकर भी मैं न मंच का हूँ</div><div>इसलिए इस मंच पर अपवाद लगता.</div><div>मैं नहीं हूँ... </div><div><br /></div><div>-जीवन यदु </div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-91265665849872674402023-12-09T09:32:00.002+05:302023-12-09T09:32:53.477+05:30सूरज की प्रत्यंचा पर <div>सूरज की प्रत्यंचा पर जब</div><div>चढ़े धूप के तीर </div><div><br /></div><div>निकला है आखेट खेलने</div><div>पहन पगड़िया लाल</div><div>अंगरखा केसरिया सोहे</div><div>दमके स्वर्णिम भाल</div><div>सप्त अश्व-रथ दौड़ रहा है</div><div>मेघ शृंखला चीर</div><div>सूरज की प्रत्यंचा... </div><div><br /></div><div>डर के मारे नदी ताल के</div><div>प्राण गए हैं सूख</div><div>मूर्छित सरि- तट की हरियाली</div><div>कौन मिटाए भूख</div><div>बुझी नहीं सूरज की तृष्णा </div><div>पीकर सारा नीर</div><div>सूरज की प्रत्यंचा... </div><div><br /></div><div>अलसायी सोयी पेड़ों में</div><div>ज्वर-पीड़िता बयार</div><div>बिगड़े देख सूर्य के तेवर</div><div>चढ़ता तेज बुखार</div><div>तप्त हवा के उच्छ्वासों में</div><div>लपटों जैसी पीर</div><div>सूरज की प्रत्यंचा... </div><div><br /></div><div>निष्क्रिय हुआ सृष्टि का खेमा</div><div>चेतनशून्य निढाल</div><div>निष्प्रभ करने लगीं झुर्रियाँ</div><div>वसुन्धरा का भाल</div><div>कण्ठ शुष्क औ' दग्ध हृदय है</div><div>चुकने को है धीर</div><div>सूरज की प्रत्यंचा... </div><div><br /></div><div>-सुधा राठौर</div><div><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-44982002372101964472023-12-09T09:31:00.002+05:302023-12-09T09:32:17.224+05:30चलिए, बाजार तक चलें <div>एक अदद</div><div>शब्द के लिए</div><div>चलिए, </div><div>बाजार तक चलें</div><div>मौसम का</div><div>हाल पूछने -</div><div>ताज़ा अख़बार तक चलें ।</div><div><br /></div><div> ज़िस्म मेमने</div><div> का क्या हुआ</div><div> बेतुका सवाल छोड़िए</div><div> स्वाद के नशे में घूमते</div><div> भेड़िए को हाथ जोड़िए</div><div> ज़ुर्म की शिनाख़्त के लिए</div><div> आला दरबार तक चलें ।</div><div> </div><div> ऐसी आंँधी गुज़र गई</div><div> ज़हर हुए, वन, नदी, पहाड़</div><div> सगे-सगे लगे हैं हमें</div><div> डोलते कबंध, कटे ताड़</div><div> लदे हरसिंगार के लिए</div><div> छपे इश्तेहार तक चलें। </div><div><br /></div><div>जोंक जो हुई ये ज़िन्दगी</div><div>उम्र है ढहा हुआ किला</div><div>तेंदुए मिले कभी-कभी</div><div>आदमी कहीं नहीं मिला</div><div>आइए, तलाश के लिए</div><div>इसी यादगार तक चलें। </div><div> </div><div>-उमाशंकर तिवारी</div>Unknownnoreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-52767629004510337792023-11-30T09:08:00.002+05:302023-11-30T09:24:45.686+05:30अम्मा की सुध आई<div>शाम सबेरे शगुन मनाती </div><div>खुशियों की परछाई </div><div>अम्मा की सुध आई </div><div><br /></div><div>बड़े सिदौसे उठी बुहारे </div><div>कचरा कोने - कोने </div><div>पलक झपकते भर देती </div><div>थी नित्य भूख को दोने </div><div>जिसने बचे खुचे से अक्सर </div><div>अपनी भूख मिटाई </div><div>अम्मा की सुध आई </div><div><br /></div><div>तुलसी चौरे पर मंगल के </div><div>रोज चढ़ाए लोटे</div><div>चढ़ बैठीं जा उसकी खुशियाँ</div><div>जाने किस परकोटे </div><div>किया गौर कब आँखों में थी </div><div>जमी पीर की काई </div><div>अम्मा की सुध आई </div><div><br /></div><div>पूस कटा जो बुने रात-दिन</div><div>दो हाथों ने फंदे</div><div>आठ पहर हर बोझ उठाया </div><div>थके नहीं वो कंधे</div><div>एक इकाई ने कुनबे की </div><div>जोड़े रखी दहाई </div><div>अम्मा की सुध आई </div><div><br /></div><div>बाँधे रखती थी कोंछे हर</div><div>समाधान की चाबी </div><div>बनी रही उसके होने से </div><div>बाखर द्वार नवाबी </div><div>अपढ़ बाँचती मौन पढ़ी थी</div><div>जाने कौन पढ़ाई </div><div>अम्मा की सुध आई </div><div><br /></div><div>-अनामिका सिंह</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-73069777668746489162023-11-26T08:39:00.012+05:302023-11-26T08:41:06.405+05:30उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से<div style="text-align: left;"> <span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"><span> </span>[डॅा. कुँअर बेचैन जी का एक गीत]</span></div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">जितनी दूर नयन से सपना</div><div>जितनी दूर अधर से हँसना</div><div>बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से</div><div>उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से!</div><div><br /></div><div>हर पुरवा का झोंका तेरा घूँघरू</div><div>हर बादल की रिमझिम तेरी भावना</div><div>हर सावन में तेरे आँसू की व्यथा</div><div>हर कोयल की ‘कुहू’ में तेरी कल्पना</div><div>जितनी दूर खुशी हर ग़म से</div><div>जितनी दूर साज़ सरगम से</div><div>जितनी दूर पात पतझर का, छाँव से</div><div>उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से!</div><div><br /></div><div>हर पत्ते में तेरा हरियाला बदन</div><div>हर कलिका में तेरी ही प्रिय साधना</div><div>हर डाली में तेरे तन की झाँइयाँ</div><div>हर मंदिर में तेरी ही आराधना</div><div>जितनी दूर रूप घूँघट से</div><div>जितनी दूर प्यास पनघट से</div><div>गागर जितनी दूर नीर की ठाँव से</div><div>उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से!</div><div><br /></div><div>क्या है, कैसा है, कैसे मैं यह कहूँ</div><div>तुझसे दूर, अपरिचित, फिर भी प्रीत है</div><div>है इतना मालूम कि तू हर साँस में</div><div>बसा हुआ जैसे मन में संगीत है</div><div>जितनी दूर लहर हर तट से</div><div>जितनी दूर शोखियाँ लट से</div><div>जितनी दूर याद कागा की काँव से</div><div>उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से!</div><div> </div><div>-डा० कुँअर बेचैन</div><div><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-64001923454847280732023-11-23T18:45:00.001+05:302023-11-23T18:45:06.151+05:30गाँव नहीं छोड़ा<div style="text-align: left;">दरवाजे का</div><div>आम-आँवला </div><div>घर का तुलसी-चौरा </div><div>इसीलिए!</div><div>अम्मा ने अपना</div><div>गाँव नहीं छोड़ा </div><div> </div><div>पैबन्दों को सिलते</div><div>मन से उदास होती </div><div>भैया के आने की खुशबू</div><div>भर से खुश होती </div><div>भाभी ने</div><div>कितना समझाया</div><div>मान नहीं तोड़ा </div><div> </div><div>कभी-कभी</div><div>बजते घर में </div><div>घुंँघरू से पोती-पोते </div><div>छोटे-छोटे बँटे बताशे </div><div>हाथों के सुख होते </div><div>घर की खातिर</div><div>लुटा दिया सब</div><div>रखा न कुछ थोड़ा </div><div><br /></div><div>गहना बनने</div><div>वाले दिन में </div><div>खेत खरीद लिये </div><div>बाबूजी के</div><div>कहे हुए सब</div><div>सपने संग लिए </div><div>सह न सकी</div><div>जब खूँटे पर से</div><div>गया बैल जोड़ा</div><div> </div><div>-डा० शांति सुमन</div>Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-92140877046724148942023-11-23T05:04:00.010+05:302023-11-23T05:06:51.810+05:30जबकि वक्त है<div>जबकि वक्त है…</div><div><br /></div><div>शौक तुम्हें </div><div>अब भी घर में</div><div>सामान जोड़ने का </div><div>जबकि वक्त है </div><div>खाली करके </div><div>इसे छोड़ने का </div><div><br /></div><div>और अभी बंदनवारें</div><div>कितनी बनवानी हैं</div><div>और कहां,कितनी लड़ियां </div><div>झूलन लटकानी हैं</div><div>खिड़की -द्वारे तोड़ पुराने ,</div><div>नए लगाना है</div><div>दीवारों पर कितनी उबटन </div><div>और चढ़ानी है </div><div>सोना सिर पर लाद</div><div>कहां तक</div><div>और दौड़ने का !!!</div><div><br /></div><div>कहते हो-ऊपर पक्का</div><div>कमरा बनवाना है </div><div>और मरम्मत टूटे सोफे की</div><div>करवाना है </div><div>बाथरूम फिल्मी ढंग के</div><div>और किचिन बनाना है </div><div>फर्श पुराने को उखाड़कर </div><div>नया लगाना है !!</div><div>घर का मुँह पूरब से</div><div>पश्चिम ओर मोड़ने का </div><div><br /></div><div>ऐसी भी क्या आज </div><div>जरूरत धूल उड़ाने की</div><div>फर्श पुराने को उखाड़कर </div><div>नया लगाने की </div><div>चिन्ता कुछ भी नहीं</div><div>पुराना कर्ज पटाने की </div><div>लिया जहाँ से जो कुछ वह </div><div>वापस लौटाने की </div><div>वक्त हुआ सतनाम </div><div>ओढ़नी </div><div>आज ओढ़ने का !!</div><div><br /></div><div>यह पड़ाव पीले पत्तों जैसा </div><div>गिरने का है!</div><div>शान्त चित्त से ग्रंथों के अध्ययन </div><div>करने का है !</div><div>यह क्षण प्रभु में ध्यान शान्त </div><div>मन से धरने का है ! </div><div>शोषित दीन-दलित, दुखियों के </div><div>दुख हरने का है !!</div><div>वक्त यही है</div><div>उपनिषदों से</div><div>रस निचोड़ने का !!</div><div><br /></div><div>शौक तुम्हें </div><div>अब भी घर में</div><div>सामान जोड़ने का</div><div><br /></div><div>-राजेन्द्र शर्मा 'अक्षर'</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-33223333004055760632023-11-06T06:10:00.002+05:302023-11-23T05:31:17.521+05:30कहो कबीरा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ठंड लगी है, सिकुड़ रहे हो<br />
कहो कबीरा ! चादर दूँ ?<br />
मन की पीर नही ले सकता<br />
तन के हित क्या लाकर दूँ ?<br />
<br />
मेरी चादर कुछ मैली है<br />
थोडा सा सह लोगे क्या ?<br />
अभी भोर में बहुत देर है<br />
अपनाकर रह लोगे क्या ?<br />
तुमसे एक जुलाहे तुम ही,<br />
तुमको क्या बनवाकर दूँ ?<br />
<br />
काशी में कबीर हो जाना<br />
आज शिष्ट व्यवहार नही,<br />
और नगर ये उलटबाँसियाँ<br />
सहने को तैयार नहीं<br />
सुनो कबीरा ! वहाँ न जाना<br />
धूनी यहीं रमाकर दूँ ?<br />
<br />
हो सकता है समय लगे<br />
"मगहर" होने में काशी को,<br />
कबिरा से अल्हड फ़कीर का<br />
घर होने में काशी को <br />
बोलो तुम्हें कहाँ से सुख दूँ,<br />
कहो कौनसा आदर दूँ ?<br />
<br />
दुनिया की हालत है जैसे<br />
धुनी रुई के फाहे की,<br />
मगर उसे भी फिक्र नहीं है<br />
वो भी एक जुलाहे की ?<br />
जटिल पहेली पूछी साधो !<br />
मैं कैसे सुलझाकर दूँ ?<br />
<br />
-चित्रांश वाघमारे</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-14137666378663754062023-09-19T09:52:00.002+05:302023-11-23T05:32:14.919+05:30 साधो दरस परस सब छूटे<div style="text-align: left;">साधो दरस-परस सब छूटे </div><div>सूख गई पन्नों की स्याही </div><div>संवादों के रस छूटे</div><div>साधो! दरस परस सब छूटे।</div><div><br /></div><div>मृत अतीत की नई व्याख्या </div><div>पढ़ना सुनना है</div><div>शेष विकल्प नहीं अब कोई </div><div>फिर भी चुनना है</div><div>रातें और संध्याएँ छूटीं </div><div>अब कुनकुने दिवस छूटे </div><div>साधो!...</div><div><br /></div><div>नहीं निरापद हैं यात्राएँ </div><div>उठते नहीं कदम</div><div>रोज-रोज सपनों का मरना</div><div>देख रहे हैं हम</div><div>हाथों से उड़ गए कबूतर </div><div>कौन बताए कस छूटे</div><div>साधो! ...</div><div><br /></div><div>आदमकद हो गए आइने</div><div>चेहरे बौने हैं</div><div>नोन, राई, अक्षत,सिंदूर के</div><div>जादू-टोने के</div><div>लहलहाई अपयश की फसलें </div><div>जनम-जनम के यश छूटे </div><div>साधो! ...</div><div> </div><div>-शिवकुमार अर्चन</div>Unknownnoreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-76942669217080653352023-09-12T07:32:00.002+05:302023-11-23T05:32:42.844+05:30अभी न होगा मेरा अन्त<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अभी न होगा मेरा अन्त<br />
अभी-अभी ही तो आया है<br />
मेरे वन में मृदुल वसन्त-<br />
अभी न होगा मेरा अन्त<br />
<br />
हरे-हरे ये पात,<br />
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात<br />
<br />
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर<br />
फेरूँगा निद्रित कलियों पर<br />
जगा एक प्रत्यूष मनोहर<br />
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस<br />
लालसा खींच लूँगा मैं,<br />
अपने नवजीवन का अमृत<br />
सहर्ष सींच दूँगा मैं<br />
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको<br />
हैं मेरे वे जहाँ अनन्त-<br />
अभी न होगा मेरा अन्त<br />
<br />
मेरे जीवन का यह है<br />
जब प्रथम चरण<br />
इसमें कहाँ मृत्यु ?<br />
है जीवन ही जीवन<br />
अभी पड़ा है आगे<br />
सारा यौवन<br />
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर<br />
बहता रे, बालक-मन<br />
मेरे ही अविकसित राग से<br />
विकसित होगा बन्धु<br />
दिगन्त<br />
अभी न होगा मेरा अन्त<br />
<br />
-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला</div>
Unknownnoreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-21310414244224881762023-09-06T07:53:00.008+05:302023-11-23T05:33:33.811+05:30हम उदास हैं और नदी में आग लगी है<div style="text-align: left;"> हम उदास हैं<br />और नदी में आग लगी है<br />कैसा है दिन ! <br /> <br />अंधे सपनों का आश्वासन<br />हमें मिला है<br />नदी-किनारे फिर<br />ज़हरीला फूल खिला है<br />दिन-भर सोई<br />आँख बावरी रात जगी है<br />कैसा है दिन! </div><div style="text-align: left;"><br />छली हवाओं ने<br />जंगल में पतझर बाँटे<br />सीने में चुभ रहे<br />सैकड़ों पिछले काँटे<br /> बस्ती-बस्ती<br />शाहों की चल रही ठगी है<br />कैसा है दिन! </div><div style="text-align: left;"><br />आदमक़द कारों से निकले<br />चौपट बौने<br />सहमे घूम रहे हैं<br />जंगल में मृगछौने<br />धुनें पराई<br />हम सबको लग रहीं सगी हैं<br />कैसा है दिन </div><div style="text-align: left;"><br />-कुमार रवीन्द्र</div><div style="text-align: left;"><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-27997976081215110012023-09-05T10:05:00.006+05:302023-09-05T10:18:46.580+05:30राजा मूँछ मरोड़ रहा है<div style="text-align: justify;"><span style="color: #38761d; font-size: large;"> शिक्षक दिवस पर हार्दिक सुभकामनाएँ</span><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><div><span style="color: #38761d; font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="color: #990000;">एक आदर्श सिक्षक अपने छात्रों को यह सिखाता है कि वे अपने आप को समझें, अपने आत्मविश्वास को जगाएँ, अन्याय और अत्याचार का विरोध करने का साहस रखें।... जब व्यवस्था मूँछें मरोड़ने लगती है तो जन-साधारण गोलबंद होने लगते हैं... और फिर जनता दिखा देती है कि वास्तव में असली ताकत मूँछों में नहीं... बल्कि उसके साथ है।... </span><span style="color: #990000;"><b>‘वाणी प्रकाशन</b>’ से हाल ही में प्रकाशित मेरे नवगीत-संग्रह </span><span style="color: #2b00fe;"><b>"इतना भी आसान कहाँ है"</b></span><span style="color: #990000;"> से एक नवगीत-</span></div><div><span><span style="color: #990000;"><span style="white-space: pre;"> </span> -डा. जगदीश व्योम</span></span></div></div><div><br /></div><div><span style="color: #2b00fe; font-size: large;">राजा मूँछ मरोड़ रहा है</span></div><div><br /></div><div><span style="font-size: medium;">राजा मूँछ मरोड़ रहा है</span></div><div><span style="font-size: medium;">सिसक रही हिरनी</span></div><div><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div><span style="font-size: medium;">बड़े-बड़े सींगों वाला मृग</span></div><div><span style="font-size: medium;">राजा ने मारा</span></div><div><span style="font-size: medium;">किसकी यहाँ मजाल</span></div><div><span style="font-size: medium;">कहे राजा को हत्यारा</span></div><div><span style="font-size: medium;">मुर्दानी छायी जंगल में</span></div><div><span style="font-size: medium;">सब चुपचाप खड़े</span></div><div><span style="font-size: medium;">सोच रहे सब यही कि</span></div><div><span style="font-size: medium;">आखिर आगे कौन बड़े</span></div><div><span style="font-size: medium;">घूम रहा आक्रोश वृत्त में</span></div><div><span style="font-size: medium;">ज्यों घूमे घिरनी</span></div><div><span style="font-size: medium;">सिसक रही...</span></div><div><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div><span style="font-size: medium;">एक कहीं से स्वर उभरा</span></div><div><span style="font-size: medium;">मुँह सबने उचकाये</span></div><div><span style="font-size: medium;">दबे पड़े साहस के सहसा</span></div><div><span style="font-size: medium;">पंख उभर आये</span></div><div><span style="font-size: medium;">मन ही मन संकल्प हो गए</span></div><div><span style="font-size: medium;">आगे बढ़ने के</span></div><div><span style="font-size: medium;">जंगल के अत्याचारी से </span></div><div><span style="font-size: medium;">जमकर लड़ने के</span></div><div><span style="font-size: medium;">पल में बदली हवा</span></div><div><span style="font-size: medium;">मुट्ठियाँ सबकी दिखीं तनी</span></div><div><span style="font-size: medium;">सिसक रही... </span></div><div><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div><span style="font-size: medium;">रानी तू कह दे राजा से</span></div><div><span style="font-size: medium;">परजा जान गयी</span></div><div><span style="font-size: medium;">अब अपनी अकूत ताकत </span></div><div><span style="font-size: medium;">परजा पहचान गयी</span></div><div><span style="font-size: medium;">मचल गयी जिस दिन परजा</span></div><div><span style="font-size: medium;">सिंहासन डोलेगा</span></div><div><span style="font-size: medium;">शोषक की औकात कहाँ </span></div><div><span style="font-size: medium;">कुछ आकर बोलेगा</span></div><div><span style="font-size: medium;">उठो! उठो! सब उठो!</span></div><div><span style="font-size: medium;">उठेगी पूरी विकट वनी</span></div><div><span style="font-size: medium;">सिसक रही हिरनी।</span></div><div><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div><span style="font-size: medium;">-डा० जगदीश व्योम</span></div>Unknownnoreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-38429163774088382352023-09-04T07:33:00.002+05:302023-11-23T05:33:55.054+05:30फिर कुण्डी खटकी है<div>फिर कुण्डी खटकी है शुभदे</div><div>देख नया दुख आया होगा</div><div>खुद चल कर आया होगा/या</div><div>अपनों ने पहुंचाया होगा.</div><div><br /></div><div>सबके हिस्से में से,थोड़ी-थोड़ी</div><div>रोटी और घटाले</div><div>दाल जरा सी है तो क्या है</div><div>थोड़ा पानी और बढ़ा ले</div><div>भूख उसे लग आई होगी</div><div>पता नहीं कब खाया होगा.</div><div><br /></div><div>इतने जब पलते आए हैं</div><div>एक और भी पल जायेगा</div><div>खुश हो पगली,हमको भी इक</div><div>नया सहारा मिल जाएगा</div><div>दुख ही तो ऐसा साथी है</div><div>जो न कभी पराया होगा.</div><div><br /></div><div>ये बेचारे कहां ठहर पाते हैं</div><div>सूरज वालों के घर</div><div>इनकी गुजर-बसर होती है</div><div>हम जैसे कंगालों के दर</div><div>पूछ देख ले किसी हवेली ने</div><div>दुत्कार भगाया होगा?</div><div><br /></div><div>-प्रदीप दुबे</div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-81810136171419214612023-09-02T08:47:00.002+05:302023-11-23T05:34:12.575+05:30सुनो सभासद <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सुनो सभासद<br />
हम केवल<br />
विलाप सुनते हैं<br />
तुम कैसे सुनते हो अनहद ! <br />
<br />
पहरा बैसे<br />
बहुत कड़ा है<br />
देश किन्तु अवसन्न पड़ा है<br />
खत्म नहीं<br />
हो पायी अब तक<br />
मन्दिर से मुर्दों की आमद<br /><span style="font-family: sans-serif;">सूनो सभासद.. .</span><br /><br />
आवाजों से<br />
बचती जाए<br />
कानों में है रुई लगाए<br />
दिन-पर-दिन है<br />
बहरी होती जाती<br />
यह बड़-बोली संसद</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-family: sans-serif;">सूनो सभासद.. .</span><br />
<br />
बौने शब्दों के<br />
आश्वासन<br />
और दुःखी कर जाते हैं मन<br />
उतना छोटा<br />
काम कर रहा<br />
जिसका है जितना ऊँचा कद</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-family: sans-serif;">सूनो सभासद.. .</span> </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
-माहेश्वर तिवारी</div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-66854859452477070262023-08-31T08:44:00.003+05:302023-11-23T05:34:38.307+05:30कुछ न मिला जब<div>कुछ न मिला जब </div><div>धनुर्धरों से</div><div>बंशी वारे से </div><div>हार-हूर कर माँग रहे हैं</div><div>भील-भिलारे से </div><div><br /></div><div>ला चकमक तो दे</div><div>चिंतन में आग लगाना है</div><div>थोड़ी सी किलकारी दे</div><div>बच्चे बहलाना है</div><div>कैसे डरे-डरे बैठे हैं</div><div>अक्षर कारे से </div><div>कुछ न मिला जब... </div><div><br /></div><div>हम पोशाकें पहन</div><div>पिघलते रहते रखे-रखे</div><div>तूने तन-मन कैसे साधा</div><div>नंग-मनंग सखे</div><div>हमको भी चंगा कर</div><div>गंडा, बूटी, झारे से </div><div>कुछ न मिला जब... </div><div><br /></div><div>हम कवि हैं</div><div>चकोरमुख से अंगार छीनते हैं</div><div>बैठे-ठाले शब्दकोश के</div><div>जुएँ बीनते हैं</div><div>मिले तिलक छापे</div><div>गुरुओं के पाँव पखारे से </div><div>कुछ न मिला जब... </div><div><br /></div><div>एक बददुआ-सी है मन में</div><div>कह दें, तो बक दूँ,</div><div>एक सेर महुआ के बदले</div><div>गोरी पुस्तक दूँ,</div><div>हमें मिला सो तू भी पा ले</div><div>ज्ञान उजारे से </div><div>कुछ न मिला जब... </div><div><br /></div><div>-महेश अनघ</div>Unknownnoreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-33201379628883584192023-08-17T09:16:00.002+05:302023-11-23T05:35:07.962+05:30तू ने भी क्या निगाह डाली री मंगले ! <div style="text-align: left;">तू ने भी क्या निगाह डाली<br />री मंगले ! </div><div style="text-align: left;"><br />मावस है स्वर्ण-पंख वाली<br />करधनियां पहन लीं मुंडेरों ने<br />आले ताबीज पहन आये<br />खड़े हैं कतार में बरामदे<br />सोने की कण्ठियाँ सजाये<br />मिट्टी ने आग उठाकर माथे<br />बिन्दिया सुहाग की बना ली<br />री मंगले! </div><div style="text-align: left;"><br />मावस है स्वर्ण-पंख वाली<br />सरसरा गयीं देहरी-द्वार पर<br />चकरी-फुलझड़ियों की पायलें<br />बच्चों ने छतों-छतों दाग दीं<br />उजले आनन्द की मिसाइलें<br />तानता फिरे बचपन हर तरफ़<br />नन्हीं सी चटचटी दुनाली<br />री मंगले !</div><div style="text-align: left;"><br />मावस है स्वर्ण-पंख वाली<br />द्वार-द्वार डाकिये गिरा गये<br />अक्षत-रोली-स्वस्तिक भावना<br />सारी नाराज़ियां शहरबदर<br />फोन-फोन खनकी शुभ कामना<br />उत्तर से दक्षिण सोनल-सोनल<br />झिलमिल रामेश्वरम्-मनाली<br />री मंगले !<br />मावस है स्वर्ण-पंख वाली<br /> <br />-रमेश यादव</div><div style="text-align: left;"><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-67085532734917690972023-08-16T09:48:00.002+05:302023-11-23T05:35:31.674+05:30कहो रामजी, कब आए हो<div>कहो रामजी, कब आए हो</div><div><br /></div><div>अपना घर दालान छोड़कर</div><div>पोखर-पान-मखान छोड़कर</div><div>छानी पर लौकी की लतरें</div><div>कोशी-कूल कमान छोड़कर</div><div>नए-नए से टुसियाए हो</div><div>कहो रामजी …</div><div><br /></div><div>गाछी-बिरछी को सूना कर</div><div>जौ-जवार का दुख दूनाकर</div><div>सपनों का शुभ-लाभ जोड़ते</div><div>पोथी-पतरा को सगुनाकर</div><div>नयी हवा से बतियाए हो</div><div>कहो रामजी …</div><div><br /></div><div>वहीं नहीं अयोध्या केवल</div><div>कुछ भी नहीं यहाँ है समतल</div><div>दिन पर दिन उगते रहते हैं</div><div>आँखों में मन में सौ जंगल</div><div>किस-किस को तुम पतियाए हो</div><div>कहो रामजी …</div><div><br /></div><div>जाओगे तो जान एक दिन</div><div>बाजारों के गान एक दिन</div><div>फिर-फिर लौटोगे लहरों से</div><div>इस इजोत के भाव हैं मलिन</div><div>अभी सुबह से सँझियाए हो</div><div>कहो रामजी …</div><div><br /></div><div>-शांति सुमन</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-13403239703304281722023-08-15T17:43:00.004+05:302023-11-23T05:35:48.731+05:30पन्द्रह अगस्त<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span style="color: #cc0000; font-size: large;">(पन्द्रह अगस्त 1947 की रात को लिखा गया यह ऐतिहासिक गीत)</span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज जीत की रात<br />
पहरुए ! सावधान रहना<br />
खुले देश के द्वार<br />
अचल दीपक समान रहना<br />
<br />
प्रथम चरण है नए स्वर्ग का<br />
है मंज़िल का छोर<br />
इस जनमंथन से उठ आई<br />
पहली रत्न-हिलोर<br />
अभी शेष है पूरी होना<br />
जीवन-मुक्ता-डोर<br />
क्योंकि नहीं मिट पाई दुख की<br />
विगत साँवली कोर<br />
ले युग की पतवार<br />
बने अम्बुधि समान रहना</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">पहरुए ! सावधान रहना...<br />
<br />
विषम शृंखलाएँ टूटी हैं<br />
खुली समस्त दिशाएँ<br />
आज प्रभंजन बनकर चलतीं<br />
युग-बंदिनी हवाएँ<br />
प्रश्नचिह्न बन खड़ी हो गईं<br />
यह सिमटी सीमाएँ<br />
आज पुराने सिंहासन की<br />
टूट रही प्रतिमाएँ<br />
उठता है तूफ़ान, इन्दु ! तुम<br />
दीप्तिमान रहना</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">पहरुए ! सावधान रहना...<br />
<br />
ऊँची हुई मशाल हमारी<br />
आगे कठिन डगर है<br />
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी<br />
छायाओं का डर है<br />
शोषण से है मृत समाज<br />
कमज़ोर हमारा घर है<br />
किन्तु आ रही नई ज़िन्दगी<br />
यह विश्वास अमर है<br />
जन-गंगा में ज्वार<br />
लहर तुम प्रवहमान रहना<br />
पहरुए ! सावधान रहना</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">पहरुए ! सावधान रहना...<br />
<br />
-गिरिजा कुमार माथुर</div>
Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-73934339363588835552023-08-15T17:42:00.002+05:302023-11-23T05:36:06.351+05:30घर की याद<div>तपी सड़क पर, </div><div>पाँव जला लेते जब माहेश्वर,</div><div>याद बहुत आता है, </div><div>ठंडी अमराई-सा घर</div><div><br /></div><div>घर, जिसमें बाबू रहते थे, </div><div>अम्मा रहती थीं </div><div>नानी, राजा-रानी बुनी, </div><div>कहानी कहती थीं</div><div>घर, जिसमें चूल्हे पर पकती </div><div>दाल मँहकती थी </div><div>नाउन, महरिन चाची की, </div><div>कनबतियाँ चलती थीं </div><div>सम्बन्धों की सूनी आँखों में, </div><div>भर आता है, </div><div>प्यार, दुलार भरे भइया-सा, </div><div>भौजाई-सा घर </div><div>याद बहुत आता है... </div><div><br /></div><div>आते थे मुजीमपुर से, </div><div>बाबा झोला डाले </div><div>कोनों में थे, चच्चा के </div><div>बीड़ी वाले आले </div><div>अपनेपन की धन-दौलत, </div><div>बँटवारे दुख-सुख के </div><div>बन्द बरोठों में पसरे पल, </div><div>चैन शान्ति वाले </div><div>हार्न, सायरन, बन्दूकों, </div><div>विस्फोटों में रह-रह </div><div>कानों में बजता है, </div><div>मंगल शहनाई-सा घर </div><div>याद बहुत आता है... </div><div><br /></div><div>दादी देती थीं गुड़-पट्टी, </div><div>लड्डू लइया के </div><div>भुनसारे तक चलते थे, </div><div>मीठे जस मइया के </div><div>आँगन भर थी धूप शिशिर को, </div><div>छपरी भादों को </div><div>तपे जेठ में सुख थे, </div><div>नीम तले चरपइया के </div><div>कोल्डड्रिंक, कॉफ़ी, रम, </div><div>व्हिस्की के कडुवेपन में </div><div>बसा स्वाद में अब तक, </div><div>मीठी ठंडाई-सा घर </div><div>याद बहुत आता है, </div><div>ठंडी अमराई-सा घर। </div><div><br /></div><div>-डॉ० विनोद निगम</div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-89788280798019058482023-08-12T09:19:00.002+05:302023-11-23T05:36:25.441+05:30बाँध लिये अँजुरी में<div>बाँध लिये अँजुरी में-</div><div>जूही के फूल</div><div><br /></div><div>मधुर गन्ध,</div><div>मन की हर एक गली महक गयी</div><div>सुखद परस,</div><div>रग-रग में चिनगी-सी दहक गयी</div><div>रोम-रोम उग आये-</div><div>साधों के शूल। <script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-6083758844097517"
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</script></div><div><br /></div><div>जोन्हा का जादू</div><div>जिन पंखुरियों था फैला,</div><div>छू गन्दे हाथों -</div><div>मैंने उन्हें किया मैला,</div><div>हाथ काट लो-</div><div>मेरे...</div><div>सजा है कबूल।</div><div><br /></div><div>आह !</div><div>हो गयी मुझसे </div><div>एक बड़ी भूल</div><div>अँजुरी में बाँध लिये </div><div>जूही के फूल।</div><div><br /></div><div>-रवीन्द्र भ्रमर</div><div>(पाँच जोड़ बाँसुरी से)</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-75006760985191390182023-08-12T09:18:00.002+05:302023-11-23T05:37:05.620+05:30जनता का गीत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तुम अँग्रेजी बुल-डॉग<br />
और हम<br />
पन्नी-खाती गायें<br />
<br />
चरण चाट कर, पूँछ हिलाकर<br />
तुम-<br />
महलों में सोते<br />
हम दर-दर अपनी लाशें<br />
अपने<br />
कंधों पर ढोते<br />
तुम उड़ो हवा के संग<br />
और हम<br />
डग-डग डपटे जायें<br />
<br />
चाहे जिस पर भौंको<br />
काटो,<br />
दौड़ाओ, गुर्राओ<br />
जहाँ मन करे-<br />
छीनो, झपटो, लूटो,<br />
मारो, खाओ.<br />
तुम टूटो बन कर मौत<br />
और हम<br />
भागें दायें- बायें<br />
<br />
संविधान, कानून, कोर्ट<br />
सब फेल<br />
तुम्हारे आगे<br />
करते तुम हो, लेकिन<br />
हरदम<br />
भरते हमीं अभागे<br />
तुम खेलो अपने खेल<br />
और हम<br />
लाठी- गोली खायें<br />
<br />
-जय चक्रवर्ती</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-23545805262600126722023-08-04T11:35:00.000+05:302023-08-04T11:35:00.788+05:30चक्की पर गेहूँ लिए खड़ा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
चक्की पर गेंहूँ लिए खड़ा<br />
मैं सोच रहा उखड़ा-उखड़ा<br />
क्यों दो पाटों वाली साखी<br />
बाबा कबीर को रुला गई<br />
<br />
लेखनी मिली थी गीतव्रता<br />
प्रार्थना-पत्र लिखते बीती<br />
जर्जर उदासियों के कपड़े<br />
थक गई हँसी सीती-सीती<br />
हर चाह देर में सोकर भी<br />
दिन से पहले कुलमुला गई<br />
<br />
कन्धों पर चढ़ अगली पीढ़ी<br />
ज़िद करती है गुब्बारों की<br />
यत्नों से कई गुनी ऊँची<br />
डाली है लाल अनारों की<br />
प्रत्येक किरण पल भर उजला<br />
काले कम्बल में सुला गई<br />
<br />
गीतों की जन्म-कुंडली में<br />
संभावित थी ये अनहोनी<br />
मोमिया-मूर्ति को पैदल ही<br />
मरुथल की दोपहरी ढोनी<br />
खण्डित भी जाना पड़ा वहाँ<br />
जिन्दगी जहाँ भी बुला गई।<br />
<br />
-भारत भूषण</div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-11517819208736288522023-08-03T18:48:00.002+05:302023-11-23T05:37:35.449+05:30पारिजात के फूल<div style="text-align: left;">सारी रात झरे आँगन में</div>पारिजात के फूल<br /><br />महके प्राण-प्रणव, जागे हैं<br />अनगिन सुप्त शिवाले<br />कई अबूझी रही सुरंगें<br />फैले भोर उजाले<br />दीप-दान करती सुहागिनें<br />द्वार नदी के कूल<br /><br />वन-प्रांतर में मृग-शावक-दल<br />भरने लगे कुलाँचें<br />बिना मेघ, नभ के जादू से<br />मन-मयूर भी नाचे<br />झूम-झूम कर पेड़ों ने, है<br />झाडी़ लिपटी धूल<br /><br />ले सुदूर से आये पाखी<br />मनभावन संदेशे<br />देह-देह झंकृत वीणा-सी<br />पुलकन रेशे-रेशे<br />दूब गलीचे बिछे, हटे हैं<br />यात्रा-पथ के शूल<br /><br />-शशिकांत गीतेUnknownnoreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-14529844.post-68546686000486888292023-08-03T18:47:00.002+05:302023-11-23T05:37:51.914+05:30 नदी का बहना मुझमें हो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">मेरी कोशिश है</div>
कि नदी का बहना मुझमें हो<br />
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तट से सटे कछार घने हों<br />
जगह-जगह पर घाट बने हों<br />
टीलों पर मन्दिर हों जिनमें<br />
स्वर के विविध वितान तने हों<br />
मीड़-मूर्च्छनाओं का<br />
उठना-गिरना मुझ में हो<br />
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जो भी प्यास पकड़ ले कगरी<br />
भर ले जाये ख़ाली गगरी<br />
छूकर तीर उदास न लौटें<br />
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी<br />
मच्छ, मगर, घड़ियाल<br />
सभी का रहना मुझमें हो<br />
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मैं न रुकूँ संग्रह के घर में<br />
धार रहे मेरे तेवर में<br />
मेरा बदन काटकर नहरें<br />
ले जायें पानी ऊपर में<br />
जहाँ कहीं हो<br />
बंजरपन का मरना मुझ में हो<br />
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-शिवबहादुर सिंह भदौरिया</div>
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